Thursday 31 October 2013

नए अखबार नई वेश्या की तरह हैं

''अखबार , खासतौर पर हिंदी अखबार अपने आप दयनीय अवस्था में नहीं पहुंचे हैं बल्कि मूढ़ता के चलते इसका बंटाढार किया गया है/ इसमें सिर्फ अखबार मालिकों का दोष नहीं है , वे तो कुछ जानते-समझते भी नहीं सिवा अपने  उद्योग के, बल्कि सम्पादकों का उनके हाथों बिक जाने का सबसे बड़ा दोष है/ वे समझबूझ खो चुके है , जितनी शेष है वह खुद के स्तर  और चमकने के लक्ष्य तक ही सीमित है/ दूसरी ओर  जिन्हें हम स्थापित अखबार  समझते हैं उनमें भी अधिक रचनात्मक लेखन नहीं हो रहा/ चूंकि वे स्थापित है और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं/ इसे हिन्दी अखबारों के लिए भले सुखद मान लिया जाए किन्तु विषय गंभीर है/ आखिर क्या कारण है कि अखबार चल नहीं पाते या जो चलते हैं उनसे  संतुष्टि नहीं मिलती?''  इस गम्भीर विषय पर हमने कई गणमान्य और सुधी जनों को एकत्र किया तथा उनसे जानने समझने का प्रयत्न किया कि  अखबारो  की ह्त्या के पीछे कौन है ? इसकी जांच करते हुए कुछ  वरिष्ठ पत्रकार , सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों के अधिकारी , अध्यापन कार्य में लगे प्रोफेसर्स -लेक्चरर तथा संगीत की दुनिया से जुड़े एक गायक ने मदद की और चर्चा में हिस्सा बनकर असल कारणों को तलाशा /'' आइये पढ़ें और समझे अखबारों के इस गिरते स्तर को तथा इसे बेहतर बनाने के लिए आगे बढ़ें -



अभिमन्यु शितोले -
(मेट्रो संपादक - नवभारत टाइम्स, मुम्बई )
आपने लिखा, “हिन्दी के अखबारों की दशा दयनीय है/ जिन्हें हम स्थापित अखबार समझते हैं उनमें भी अधिक रचनात्मक लेखन नहीं हो रहा/ चूंकि वे स्थापित हैं और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं/ इसे हिन्दी अखबारों के लिए भले सुखद मान लिया जाए किन्तु विषय गंभीर है/ आखिर क्या कारण है कि अखबार चल नहीं पाते या जो चलते हैं उनसे संतुष्टि नहीं मिलती?”
विषय बहुत वृहद है पर बिना किसी भूमिका के संक्षेप में अपनी बात रख रहा हूं...
समाचार पत्र चाहे हिंदी का हो या किसी भी अन्य भाषा का, उसके विकास की एक प्रक्रिया होती है। बिल्कुल उसी तरह जैसे इंसान का बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो उसे पनपने के लिए पहले लाड़-प्यार, शिक्षा-दिक्षा की जरूरत होती है इस दौरान उस पर जैसे संस्कार होते हैं वह उन्हीं संस्कारों के अनुरूप कार्य करता है। ठीक इसी तरह समाचार पत्रों की विकास प्रक्रिया है। शुरूआत में किसी भी समाचार पत्र को अपने पैर जमाने के लिए मालिकों के लाड़-प्यार की जरूरत होती है। साथ ही साथ जो लोग समाचार पत्र के लिए काम कर रहे हैं (सिर्फ संपादकीय विभाग के लोग ही नहीं अपितु समाचार पत्र के समूचे कर्मचारी) उन्हें प्रशिक्षित करने की आवश्यक्ता होती है ताकि वे समाचार पत्र को अच्छे संस्कार दे सकें, अर्थात उसकी दिशा और दशा, आचार और व्यवहार को निर्देशित कर सके। इस प्रक्रिया से जब कोई समाचार पत्र तैयार होता है तो वह स्थापित भी होता है और टिके भी रहता है। एक और महत्वपूर्ण तथ्य को मैं रेखांकित करना चाहता हूं “किसी भी समाचार पत्र की लॉन्चिंग से पहले की जाने वाली नियुक्तियां समाचार पत्र के भाग्य लिखती है” पर हो यह रहा है कि किसी भी नए समाचार पत्र को संस्कारित संतान की तरह नहीं बल्कि कोठे पर आई नई वेश्या की तरह पहले दिन से ही ग्राहकों को खुश करने की अनिवार्य और अंतिम शर्त के साथ ल़ॉन्च किया जा रहा है  और इसके लिए नियुक्तियों का पैमाना भी वैसा ही है। जैसे परिणाम सामने आ रहे हैं वे किसी से छिपे नहीं है।
भाषाई, कस्बाई, वैचारिक और व्यावसायिक हर तरह के समाचार पत्र में काम करने के ढाई दशक बाद में इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि नए से शुरू होने वाले हर समाचार पत्र के प्रबंधन को सबसे पहले इस बात की व्यवस्था करनी होगी कि जिन भी पत्रकारों को वो अपने समाचार पत्र से जोड़ रहे हैं उनके प्रशिक्षण को अनिवार्य बनाया जाए। यह प्रशिक्षण कम से कम 6 महीने का हो, ताकि टीम को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जा सके की उसे क्या करना है, किस तरह करना है, उसके पास साधन क्या है, उसका साध्य क्या है। तब जाकर एक सधी हुई दिशा और दशा का समाचार पत्र आकार ले पाएगा। तब जो समाचार पत्र बनेगा उसमें रचनात्मक लेखन भी होगा और पाठक को संतुष्टि भी मिलेगी।
आपने कहा कि स्थापित अखबार चूंकि स्थापित हैं और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं... सच है जब विकल्प नहीं होगा तो बदलाव भी नहीं होगा, लेकिन स्थापित होना और टिके रहने में सिर्फ विकल्पहिनता ही नहीं एक मात्र वजह नहीं है, इसमें स्थापित होने और टिके रहने की काबिलियत की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्ना बाजार में उपभोक्ता के लिए क्या ‘ABC ‘  और क्या ‘XYZ’। पिछले ढाई दशक में मैंने पाठकों को कई बार 99 रुपये की स्कीम के लिए अपनी ‘लायलटी’ बदलते देखा है। बहरहाल मैं पूरी शिद्दत के साथ कहना चाहता हूं कि किसी भी समाचार पत्र के लिए स्थापित होना मुश्किल जरूर हो सकता है नामुमकिन कतई नहीं, लेकिन अनिवार्यता इस बात की है कि जो लोग समाचार पत्र के प्रकाशन के क्षेत्र में आ रहे हैं उन्हें धंधे और बाजार के फर्क को पहचानना होगा। बाजार की भाषा में कहूं तो समाचार पत्र एक प्रॉडक्ट जरूर है लेकिन शैंपू और डायपर की तरह नहीं है जो समय उम्र के हिसाब से बदलते जाते हैं। समाचार पत्र प्रॉडक्ट है इक्विटी निवेश की तरह का, जिसमें लोग इसलिए निवेश करते हैं ताकि खुद को आने वाले कल के लिए अपडेट रख सकें। इसलिए याद रखें जो समाचार पत्र अपने पाठकों को उसके निवेश का अच्छा रिटर्न देंगे वे ही टिक सकेंगे। खासकर तब जब मोबाइल मीडिया की बहुत बड़ी चुनौती सामने है। जहां पल-पल पर अपडेट है, बदलाव है और सोशल कनेक्ट है। जो अखबार स्थापित होना चाहता है, घरों में टिके रहना चाहता है उसे पंरपरागत ढर्रे को छोड़कर नए मार्ग खोजने होगें...। इंवेट, न्यूज और स्टोरी के बीच के महीन अतंर को पहचानना होगा। टीवी पर दिन भर च्युंगम की तरह चबाकर थूंकी गईं खबरों का गुब्बारा फुलाने से काम नहीं चलेगा, समाज की अनछुई खबरों पर फोकस करना होगा। सनसनी कभी-कभार ठीक है पर ज्यादातर स्थानीय स्तर पर समाज के बड़े वर्ग को आंदोलित करने वाली खबरों को महत्व देना होगा। यह बड़ा श्रम साध्य कार्य है और बिना मानव संसाधनों को इसके लिए प्रशिक्षित किए यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से भाषाई समाचार पत्रों में अब पत्रकारों को प्रशिक्षित करने की परिपाटी का अंत हो चुका है। और बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि कुकुरमुत्ते की तरह उग आए – मीडिया इंस्टिट्यूट्स और बीएमएम कोर्सेस आजीवन बेरोजगारी और नाकारेपन के सर्टिफिकेट बन कर रह गए हैं। शिक्षा के नाम पर टाइम पास और अभिभावकों के पैसे की बर्बादी के अलावा ये नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हैं। इसलिए अगर कोई प्रकाशक अच्छा सामाचर पत्र निकालना चाहता है तो उसे खुद ही अपनी टीम को प्रशिक्षित कराने का बीड़ा भी उठाना होगा, तभी उसके समाचार पत्र के प्रकाशन में किए गए उसका निवेश लाभ अर्जित कर सकेगा।

अजय भट्टाचार्य 
(सम्पादक 'भजन-कीर्तन') 
सबसे  बड़ी दिक्कत यह है कि अब खबरियों को भी पत्रकार बनाने का सिलसिला चल निकला है। नये अख़बार बिना किसी तैयारी के निकल रहे हैं। जोड़ तोड़ के महारथी आज अख़बारों में, चैनलों पर व अन्य मीडिया माध्यमो पर आसीन हैं। नयी पीढ़ी मेहनत नहीं करना चाहती। सिंडिकेट बना हुआ है। बावा किस किस पर क्या क्या लिखोगे? जिनको अपना नाम लिखना नहीं आता वे पत्रकार संगठन बना कर दलाली में लगे हैं। आज स्थिति यह है कि किसी बड़े अख़बार से जुड़ा टुच्चा सा अंशकालीन अपने को धर्मवीर भारती से कम नही समझता। जाने दीजिये  बात निकलेगी तो कई नंगी सच्चाइयां हमारे पेशे की  विद्रूपता को उद्घाटित कर देंगी।


डॉ. अजीत
(लेक्चरर ' गुरुकुल कांगरी विश्विद्यालय , हरिद्वार ')
हिन्दी समाचार पत्रों के साथ कई नई प्रवृत्तियां जुड गई है जो मानक पत्रकारिता की सीमाओं का अतिक्रमण करती है मसलन खबरों का अत्याधिक स्थानीयकरण, विज्ञापन के स्पेस का बढ जाना,वैचारिकी पक्ष को कोरम की तरह प्रकाशित करना ऐसे मे एक जागरुक पाठक निश्चित रुप हिन्दी पट्टी के अखबारों को देखकर निराश होता है। पहले अखबार एक सन्दर्भ के रुप मे प्रयोग किए जाते है लेकिन लाईव और खबरों की आपाधापी में अब अखबार की विश्ववसनीयता पर सवाल खडे कर दिए है। अखबार मे घटती वैचारिकी और समाचार प्रकाशित करने की अंध दौड नें हिन्दी अखबार की गरिमा को कम किया है। अखबार हमे तभी संतुष्टि दे पाते है जब वो हमे खबरों के लिहाज़ से अपडेट रखे और दिमाग की खुराक के लिए निष्पक्ष वैचारिकी को भी रुचिपूर्वक प्रकाशित करें।

इद्रजीत अकलेचा 
(डेवलपमेंट अधिकारी , 'न्यू इंडिया इंश्युरेंस कम्पनी' खरगोन म.प्र. )

मुझे  यह भी लगता है कि जैसे मै दैनिक भास्कर और नईदुनिया घर पर आते है तो वह पढ़ता ही हू,तो जो इन अखबारो ने स्थानीय खबरो को स्थान देने के लिये 3-4 पेज दिये है साधरणतयाः उससे लोगो का झुकाव उन समाचारो को पढ़ने मे हुवा है,जिससे वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरो के लिये समय नही निकाल पाते है,और इससे कही ना कही अखबारो मे छपने वाली खबरो की गुणवत्ता  पर फरक तो पड़ा है,क्योकि अखबार भी बाजार वाद की चपेट मे है और छपता वही है जो बिकता है.

विजय साप्पत्ती 
(कवि, हैदराबाद, आंध्र प्रदेश )   
मेरे विचार से धन की लालसा , पद की लालसा और खुद के स्वाभिमान की हत्या , और ज़िन्दगी की rat race  में आगे निकलने की स्पर्धा इन्ही सब बातो ने अख़बार जैसे अच्छे माध्यम को बिकाऊ बनाकर रख दिया है . . मुझे याद आता है पंजाब केसरी की बात , क्या दम था अखबार के मालिको में . ऐसे अखबार आजकल कहाँ  है.

आशीष दुबे 
(गायक-अभिनेता  , आजमगढ़ उ.प्र.)  
मैने इतिहास में  पढ़ा है कि रजवाड़े चाटुकार इतिहासकार पैसे दे कर पालते थे, जो एक पक्षीय  इतिहास लेखन करते थे...वे प्रजा की समस्याओ से अनभिज्ञ होते थे...आज के दौर में मीडिया  भी वही कर रही है जो दरबारी इतिहासकार करते थे....पैसा,तोहफा और सरकारी सम्मान की लालच मे जो सरकार चाहती है उसे लिखते और दिखाते है...ये लोकतंत्र व्यवसायीकरण है...

(....शेष अगली पोस्ट में ).