Tuesday 24 December 2013

हद कर दी 'आप' ने

शतरंज में अगर कोइ अपनी मोहरों के बारे में पहले ही बता दे कि भई मैं प्यादे को इस तरह सरका कर, अपना घोड़ा यहाँ रखूंगा, ऊँट इधर होगा और वजीर इस बॉक्स में रखकर शह दूंगा / अब भला आप बताइये कोइ कभी जीत सकता है ? उसे न केवल हारना है बल्कि वो महामूर्ख भी कहलायेगा/ आप पारदर्शी रहें मगर इतने कि अपने पत्ते खोल कर सामने रख दें , एक खिलाड़ी के लिए यह बेवकूफाना प्रदर्शन होता है और अरविन्द केजरीवाल यही सब कर रहे हैं/
ईमानदारी का ढोल पीट कर अपने माई-बाप जनता की इज्जत और उसके विशवास के साथ घात करना 'आप' का शगल हो चला है/ बड़ी शान से कहा जाता है कि हमारी माई-बाप जनता है उससे अगर हम राय मांगते हैं तो क्या गलत करते हैं/ आप अब तक के आम आदमी वाले सफ़र को देख लीजिये उसने जनता से मांगने के अलावा दिया क्या है? ख़ैर  ..  / छोटा सा उदाहरण है -आपके माता-पिता ने आपको पढ़ा लिखा कर बड़ा किया, कलेक्टर तक बना दिया अब आप अपने क्षेत्र में होने वाली प्रत्येक समस्या-कार्य इत्यादि को लेकर कहें कि नहीं पहले मैं अपने माता-पिता से पूछूंगा तभी कोइ काम करूंगा , कैसे सम्भव है ? पिता आपके काम के बारे में क्या जानता है बेचारा ? उसे तो आपको कलेक्टर बनाना था, अब आपकी काबिलियत है कि आप कैसे घर चलाते हैं/ अपने माता-पिता को किस प्रकार रखते हैं/ आप असफल होते हैं और इसका दोष  भी बेचारे माता-पिता के सिर  फोड़ते हैं कि उन्होंने हमारा पूरा पूरा साथ नहीं दिया अन्यथा बेहतरीन तरीके से घर चला लेता / यह दोगला चरित्र है/ यह किसी भी आदमी के लिए पतन का मार्ग है/ यह धोखा है / और यह सबकुछ इन दिनों 'आम आदमी पार्टी' द्वारा किया जा रहा है/ बार बार खुद को साफ़ स्वच्छ बताकर जनता को सिर्फ बरगलाया ही जा रहा है/ आप आखिर जनता को दे क्या रहे हैं?
नई प्रकार की राजनीति  का डिब्बा बजाते फिर रहे हैं मगर भूल रहे हैं इसमें जनता का कितना नुक्सान हो रहा है/ सत्ता के मोह और उससे अलग रहकर जनता का काम करना ही था तो समाज सेवा ही करते रहते/ देश में कितने लोग हैं जो समाज सेवा में लीं है और बगैर किसी स्वार्थ के/ राजनीति का मैदान खिलाड़ियों का मैदान होता है/ खिलाड़ी को जीतना होता है और वो उसी तरह की रणनीति बनाता है/ आपने भी रणनीति बनाई मगर दर्शकों के कंधे पर रख कर बन्दूक से निशाना साधने की जो बचकानी जिद है यह ले डूबने वाली है/ देखिये बिन्नी जैसे नेता ने अपना मोह प्रकट कर दिया / और यह मोह बेकार भी कहाँ हैं/ ईमानदार मोह है/ आपने गलत किया  कि एक सधे और अनुभवशाली नेता को हाशिये पर रखने का दुस्साहस किया / नतीजा सामने है/ मोह सबको है/ अरविन्द केजरीवाल को भी मोह है/ उनका मोह इस तरह का है कि वे जनता के सामने पाक-साफ़ दिखाई देते रहें/ इसके लिए ve राजनीति कर रहे हैं/ उन्हें जनता के लिए कुछ करना है , ऐसा अबतक नहीं दिखा / बात मेंडेट की कहते हैं/ २८ सीट मिली/ बहुमत नहीं मिला/ आपको बहुमत से क्या करना है/ सरकार बनाकर जनता की भलाई में लगना है / कीजिये/ जब कोइ टांग अड़ाता वो जनता को  सामने दिखाई  ही देता / इसमें परेशानी क्या थी? बहरहाल, आपमें कूवत नहीं है/ वो सिर्फ बेवकूफ बनाना जानती है/ या फिर उसे इसीमें मज़ा आता है या फिर अचानक मिली गद्दी ने उनका दिमाग अस्त व्यस्त कर दिया है/
अपने विरोधियों को मात देने का मतलब यह नहीं कि खेल से भागने की नीति अपनाना / उन्हें सावधान कर देना/ आप सरकार बनाकर वह सब कर सकते थे जिसके लिए नाटक रचा और जनता को बार बार भौंचक बनाये रखा है/ फिलहाल बिन्नी महाशय को मना लिया गया है और हर बार की तरह मीडिया को कटघरे में खड़ा करते हुए 'आप' ने शपथ ग्रहण की और कदम बढ़ा लिया है/ संकट बरकरार है/ अगर कांग्रेस अपना समर्थन वापस लेती है तो यह कांग्रेस का दोष नहीं माना जाएगा बल्कि 'आप' दोषी होगी/ 'आप' ही एकमात्र जनता के कलप्रिट है जिसने सरकार बनाने में डेरी की फिर इतनी आग उगली कि उसके समर्थन वाली पार्टी को बिदकना पड़ा/ आखिर कौन अपमान का घूँट पी पी कर समर्थन देगा? 'आप' इतनी ही ईमानदार है तो अबके फिर चुनाव हो ही जाए/ दूध का दूध पानी का पानी जनता सामने ले आयेगी / क्योंकि जनता को 'आप' जैसी पार्टी से मोहभंग हो चला है/ प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या वाले कथन के साथ जनता यह जान चुकी है कि 'आप' में सिर्फ चिल्ला चोट करने का हुनर है , सरकार बनाकर जनता की भलाई करने का नहीं/ 

Friday 13 December 2013

अन्ना का अनशन रिटायर होती कांग्रेस को पेंशन

अगर आपको कहें कि अन्ना का अनशन रिटायर होती कांग्रेस को पेंशन और लोकपाल की आड़ में झोलझाल करना है तो कैसा लगेगा? अच्छा नहीं लगेगा न / मगर इस अनशन से उभरी तस्वीर संदेह को मजबूत भी तो करती है कि अन्ना का अनशन अब लोकहित में कम कांग्रेस हित में ज्यादा दिखता है /
पिछले दिनों अन्ना के  मंच से कांग्रेस द्वारा  पेश किये गए बिल के समर्थन में जो बात कही गयी वो संदेह को पुख्ता करने के लिए पर्याप्त है कि अन्ना को यह क्या हो गया ? अन्ना के अचानक कांग्रेसी करण को देखकर भौंचक रह जाने के आलावा दूसरा कुछ दिखता क्यों नहीं ? संसद में रखे गए लोकपाल और अन्ना के जनलोकपाल में काफी अंतर होने के बावजूद उसे स्वीकार कर लेने की मंशा क्या कांग्रेस को जीवनदान देने जैसा नहीं है? कांग्रेस द्वारा पेश किये जाने वाले बिल में अन्ना के जनलोकपाल बिल के कई मुद्दे नहीं है/ सरकारी बिल के अनुसार न तो सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाया जा रहा है, न सिटिजन चार्टर लागू किया जा रहा है और ना लोअर ब्यूरोक्रेसी को लोकपाल की जांच के दायरे में रखा जा रहा है/ जबकि इन मांगों को लेकर ही अन्ना बनाम सरकार जैसी स्थितियां निर्मित हुई थी/ 'आप' को सरकारी लोकपाल मंजूर नहीं है/ जबकि अन्ना सरकारी लोकपाल के पक्ष में खड़े होते दिखने लगे हैं/ यदि ऐसा ही था तो अन्ना द्वारा देश की जनता को इतने दिनों तक आंदोलन की आग में झौंकने  का क्या औचित्य था? क्या अन्ना इस तरह देश की जनता के साथ धोखा नहीं कर रहे? या फिर वे कांग्रेस के समर्थन में उतर आये हैं?
अब आप अन्ना और अरविन्द केजरीवाल की राजनीति को समझिये/ दोनों ने एकसाथ मिलकर आंदोलन शुरू किया था/ कांग्रेस के खिलाफ आग उगली थी/ बाद के दिनों में अरविन्द केजरीवाल ने अपनी आम आदमी पार्टी ' बना ली और अन्ना से दूरी भी/ किन्तु यह दूरी दिखावे की दूरी ज्यादा प्रतीत हुई/ आपसी मतभेद के बावजूद दोनों ही कांग्रेस के प्रति झुके  हुए  नजर आते हैं/ दिल्ली की  सत्ता के लिए 'आप' और कांग्रेस के बीच के समीकरण छुपाय  नहीं छुपते  / अन्ना द्वारा सरकारी लोकपाल के समर्थन में खड़े हो जाना कांग्रेस की डूबती नैया को पार करा देने जैसा है/ कांग्रेस को यही सब तो चाहिए / आज उसकी हालत जिस तरह से गिरती जा रही है उसे अन्ना और 'आप' के सपोर्ट की बहुत आवश्यकता है, भले ही छुपे तौर पर/ और यह उसे मिलता भी नज़र आता है/
अब आप अन्ना की कही गयी बातों को देखें और खुद समझने का प्रयास करें - ‘कोई बात नहीं... सोमवार को उस पर बहस होने दो। एक दिन लोकसभा के लिए रख लो। मुझे पूरा भरोसा है कि इस बार बिल पास हो जाएगा।’ यानी अन्ना इसी सरकारी बिल पर मानने को तैयार हैं/ उनकी करीबी किरण बेदी ने तो खुले तौर पर इस बिल को ‘अन्ना का जनलोकपाल’ बता दिया है/ क्या देश की आँखों में धूल नहीं झौंकी जा रही ? जनता जो इस आंदोलन में अपना सबकुछ न्योच्छावर कर कूदी थी क्या सरकारी बिल को पाकर वो संतुष्ट  होगी ? अन्ना और अरविन्द ने अपने अपने हित तो साध लिए , और आज भी जनता के कन्धों पर बन्दूक रख कर साध रहे हैं किन्तु जनता को क्या मिल रहा है ? सोचिये /

Wednesday 11 December 2013

मिस्टर ईमानदार का पासा

अन्ना के दम पर नेता बने मिस्टर ईमानदार अरविन्द केजरीवाल बीमार हो गए हैं/ और शायद तब तक बीमार रहेंगे जब तक के अन्ना का अनशन ख़त्म न हो जाए/ तरह तरह की बातें इसलिए हो रही है कि अभी जीत के जश्न में कह तो दिया कि वे अन्ना से मिलने रालेगढ़ जायेंगे मगर अचानक दूसरे दिन सुबह बीमार हो गए/ उनके टीम सदस्य अब अन्ना के अनशन में शरीक होंगे/
अच्छा यह बताएं कि आखिर अन्ना के अनशन में मिस्टर ईमानदार क्यों जाना चाहते थे? इसलिए कि  अन्ना से जुड़े रहें हैं और उनसे विलगता की खबर उनकी राजनीति के लिए तकलीफदेय साबित हो सकती है / वे चाह कर भी अन्ना का 'नाम' अपने मुंह से अलग नहीं कर सकते क्योंकि यही वह मंत्रित नाम है जिसके जाप ने उन्हें नेता बना कर खड़ा कर दिया है/ दूसरी ओर  अन्ना के अनशन में जाकर वे मैसेज क्या देना चाहते थे ? इमानदराना तरीके से जनता को बेवकूफ बनाना अरविन्द बेहतर जान चुके हैं/ उनके मैसेज में अन्ना एक बार फिर आवरण होते और वे अपनी राजनीति आसानी से धका लेते/ फिलवक्त वे कर भी यही रहे हैं / और शायद अन्ना खेमे में उनकी चालबाजियां समझ आने लगी है और सम्भव है इसी वजह से अन्ना खेमे ने अरविन्द को अपने अनशन से दूर रखना चाहा हो और अरविन्द ने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए बीमारी का बहाना बनाया हो और अपने सदस्यों को अन्ना के पास भेजा हो? उधर अन्ना के साथ तकलीफ यह है कि वो भी अरविन्द  को सीरे से नकार नहीं सकते/ इसमें अन्ना की मजबूरी है/ मगर अन्ना टीम में अरविन्द के लिए अब पहले जैसी कोइ जगह नहीं बची है/ अन्ना टीम अच्छी तरह से जानती है कि अरविन्द केजरीवाल किस चिड़िया का नाम है जो चुगती  तो अन्ना के यहाँ है और दम देशभर में ईमानदारी का भरती  है /अगर अरविन्द अन्ना के लिए इतने ही वफादार होते, ईमानदार होते तो वे बीमारी के बावजूद रालेगढ़ जा सकते थे/ जब वे अपना चुनाव प्रचार बीमारी में कर सकते हैं, अनशन के नाम पर कभी बीमार हो सकते है , अपना लक्ष्य नहीं छोड़ते तो अन्ना के पास जाने में ऐसी कौनसी बीमारी उन्हें रोक दे रही है? भई , बातें तो तरह तरह की होंगी, सवाल तो उठेंगे क्योंकि अरविन्द राजनीति के उस्ताद माने जाने वाले खिलाड़ी माने जाने  लगे हैं/ वे पब्लिक फिगर हैं और उनकी प्रत्येक गतिविधि पर सबकी नजरें होंगी /
बहरहाल, दम्भ आदमी के पतन की ओर इशारा करता है/ अपनी रोतली स्टाइल से बोल कर वे जनता के दिमाग को कब तक ठग सकते हैं यह देखना है/ खुद ईमानदार होने का सर्टिफिकेट दिखाया करते हैं , जब जनता ने उन्हें मौका दिया तो लालच देखिये उन्हें बहुमत देकर दिखाओ फिर काम करेंगे ,वाली मानसिकता बना ली है/ और तो और अपना गुस्सा वे भाजपा पर उढ़ेल रहे हैं कि अगर उनके यहाँ कोइ ईमानदार नेता हो तो वो 'आप' में आ सकता है / अभी अपने ईमानदार होने का सबूत देना बाकी है केजरीवाल को / मौका भी दिया मगर  कूटनीति खेलने लगे/ भाजपा हो या कांग्रेस हो , इनसे इतर वे कौनसा नया गेम खेल रहे हैं ? बताइये/ यही सब तो हमारी राजनीति में आज तक होता आया है/
अरविन्द केजरीवाल नामक इस शख्स को समझना होगा / समझ भी रहे हैं लोग / ये क्या वाकई में देश के लिए भला हो सकता है? चलिए मान लेते हैं कि वे भले हो सकते हैं/ किन्तु कैसे भले ? इस भले पन को दिखाओ तो पहले/ 'आप' हमेशा अपनी ही गोटी चलना चाहती है / आप की चित भी  और पट भी हो / आप ही गुरुर में रहो/ और देशभर की जनता आपको ही ईमानदार मानती रहे, बाकी सब आपके पीछे रहें  , आप ही इस देश के पहले और  ईमानदार नेता है / आखिर ऐसा कैसे हम सब मान लें? उसका कोइ एक तो उदाहरण सत्ता में रहकर दिखाते / क्यों बच्चो जैसी जिद है कि हमें बहुमत नहीं मिला , हम सरकार  नहीं बनाएंगे ? भाजपा तो राष्ट्रीय पार्टी है , वो राजनीति खेलती है/ उसका काम ही है कि वह हर कोण से सोचकर अपना फैसला ले/ उसके किसी भी तरह के कदम को आपकी तरह नहीं माना जा सकता / आप जो कहें वो वही करे , ऐसा नहीं हो सकता/ आप कांग्रेस से मिलिए न/ बिना शर्त जब वो आपको समर्थन दे रही है तो क्यों पीछे हटते  हो ? वे तो बस ८ विधायक है / आपके काम के बीच अडंगा भी नहीं डालेंगे/ दर असल भाजपा में नहीं 'आप' में भय है/ इसलिए पहली बार आपके साथ हुई जनता के फैसले को 'आप' नकार रहे  है/ और दोबारा चुनाव में दिल्ली को झौंक रहे हैं/ यह होती है राजनीति/ मिस्टर  ईमानदार की राजनीति/ शायद इसीलिये टीम अन्ना 'आप' को अब कोइ मौका देना नहीं चाहती कि 'आप' उनके दम पर चमकते रहे/ वैसे  भी दिखने लगा है बड़ा हुआ लालच और घमंड का 'ओरा'/

Tuesday 10 December 2013

मिल गया कांग्रेस को पीम कैंडिडेट ?

 नंदन निलेकणी 
अमिताभ श्रीवास्तव

प्रधानमंत्री टाइप कौन नेता है जिसे कांग्रेस प्रोजेक्ट कर सकती है ? कोइ भी नहीं / जो दीखते हैं उनमें से कोइ एक भी दूध का धुला नहीं दिखता/ लिहाजा सोनिया गांधी दिखने वाले नेताओं में से किसीका नाम चुनने जैसी गलती तो नहीं कर सकती/ फिर कौन? 
राहुल गांधी ? नहीं / कम से कम इस चुनाव में तो नहीं/ माहौल खिलाफ है/ ऐसे में गांधी परिवार पर हार की कोइ आंच उनके कद के लिए भारी पड़  सकती है/ वैसे भी जितने आकलन हो रहे हैं उनमें कांग्रेस की सरकार बनती नहीं दिख रही/ ऐसे में ऐसे किसी नाम को सामने लाया जाए जिसके हारने से कोइ फर्क गांधी परिवार को न पड़े/ यह भी एक राजनीति है और ऐसी राजनीति गांधी परिवार बेहतर तरीके से खेलना जानता है/ उसके सामने इसके अलावा कोई विकल्प भी तो नहीं है/ आप अगर सोचें कि सोनियागाँधी कपिल सिब्बल, चिदंबरम जैसे नेताओं को पीएम पद की उम्मीदवार बना कर चुनाव लड़ना चाहेंगी? तो ऐसा नहीं हो सकता/ इन नेताओं की अपनी छवि लगभग खराब है और मोदी का मुकाबला करना इनके बूते की बात नहीं/ खुद सोनियाइस पद के लिए नामांकित नहीं हो सकती और न ही राहुल को फिलवक्त बने माहौल में बली का बकरा बना सकती हैं/ 
एक खबर के मुताबिक़ सोनिया ने एक ऐसे नेता की पहचान कर ली है जिसे मोदी के खिलाफ पीएम उम्मीदवार घोषित करने में कोई बुराई नहीं होगी/ नंदन निलेकणी / क्या आपने कभी इनका नाम सुना है? नहीं न/ यही वजह है कि कांग्रेस नंदन के नाम पर गम्भीरता से सोच सकती है/ हालांकि नंदन निलेकणी ने ऐसी किसी भी बात से साफ़ इंकार किया है किन्तु अपने चुनाव लड़ने की बात पर किसी प्रकार की ना नुकुर उनके मुंह से सुनने को नहीं मिलती/ यानी समझा सकता है कि सोनिया गांधी नंदन निलेकणी को सामने लेकर आ सकती है/ नंदन को सामने लाने के पीछे भी ठोस कारण है/ वे साफ़ छवि वाले इंसान है/ बिजनेस से सम्बंधित unkee पकड़ मजबूत है/ इनफ़ोसिस के संस्थापक के रूप में उन्हें देखा जाता है/ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी छवि बेहतर है/ उम्र के लिहाज से भी वे बिलकुल फिट केंडिडेट माने जा सकते हैं/ नंदन आई आई टी से हैं और युवाओं के लिए सम्भव है वे नई किरण के रूप में निखर कर सामने आयें/ बेंगलूर से वे लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे  हैं/ मगर अभी खुद को प्रचारित करने के मूड में नहीं दीखते/  निलेकणी की एक विशेषता और है वे मधुर स्वभाव के और सबके साथ मिलनसार हो जाने वाले इंसान है/ मेहनती और कर्तव्य निष्ठ नंदन ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति दिखाई देते हैं जिनके नाम पर अगर कांग्रेस राजी हो जाती है तो कोइ अप्रत्याक्षित फैसला नहीं माना जा सकता क्योंकि कांग्रेस को आज सबसे बड़ी जरुरत इसी बात की है कि उसे लोगों के सामने एक साफ़-सुथरी छवि वाला नेता लाना है/ सम्भव है नंदन ही हों कांग्रेस की ओर से पीएम  उम्मीदवार? 

कांग्रेस की उखड़ती साँसे

कांग्रेस क्या अपने पतन पर खड़ी है? चार राज्यों के चुनाव परिणामों और देश में बन रही उसकी छवि इस सवाल को गम्भीरता से प्रकट करती है / अगर एक नजर में इस सवाल के उत्तर में हम हां को जगह देकर देखें तो इसके कई कारण भी दृष्टिगोचर होने लगते हैं/ यह कारण कोई बचकाने नहीं है जिनसे बचा जाए बल्कि इतने ठोस हैं कि कांग्रेस को न केवल पुनरमंथन करना होगा बल्कि अपनी पार्टी में सफाई भी करनी होगी/
इंदिरा -राजीव काल के बाद सोनिया गांधी का सफ़र कुछ हद तक संतोषजनक रहा  किन्तु अब राहुल काल में सोनिया की छवि को यदि धक्का पहुंचा है तो इसका मूल कारण ये दोनों आला नेता ही हैं जिन्होंने चाटुकारिता को प्रमुखता दी और सलाहकारों को खुल्ला छोड़ दिया/ गांधी परिवार की यह विशेषता रही है कि उसने अपने आगे किसी नेता को खड़ा नहीं होने दिया / अभी भी इस परम्परा को उन्होंने बनाये रखा है किन्तु उनके नेताओं द्वारा उनको बेवकूफ बनाये रखने की 'चाल' को समझ पाना गांधी परिवार के बस में नहीं रह गया/ परिणाम सामने है कि कांग्रेस की हार का ठीकरा गांधी परिवार पर फूटता है और गांधी परिवार की छवि जनता के सामने कौड़ी भर की होने लगी है/ ये जो कांग्रेसी नेताओ का समर्पण है , ये दिल से नहीं दिमाग से है / उन्हें पता है कि उनकी रोजी रोटी सोनिया -राहुल से जुडी है / वे यह भी जानते हैं कि दोनों को किस तरह अँधेरे में रखा जा सकता है और कब तक रखा जा सकता है / ताकि उनकी झोली इतनी भर जाए कि भविष्य की चिंता न रहे/ यानी गांधी परिवार की भक्ति में लीन रहते हुए बेवकूफ बनाया जाता रहे/ दिग्विजय सिंह हों या कपिल सिब्बल, या फिर चिदंबरम, राजिव शुक्ला जैसे नेता हों, इन नेताओं ने कांग्रेस को अपनी गिरफ्त में इतना ले रखा है कि सोनिया-राहुल इनके इतर कुछ सोच ही नहीं पाते / शीला दीक्षित की हार और उसके बाद उनका एक कमेंट कि 'नेताओं की वजह से पराजय ' इस बात को पुख्ता करता है/ फिर भी स्थिति इतनी दृढ़ है कि सोनिया अगर अपनी पार्टी में सफाई भी करना चाहे तो नहीं कर सकती /
राहुल गांधी पूरी तरह से अपरिपक्व नेता हैं और यही वजह है कि उन्हें सिर्फ चाटुकारिता में घिरे रह कर ही काम करना है/ वे कितना भी खुद को प्रोजेक्ट करने की कोशिश करें, या  खुद में साहस, या आत्मविश्वास को दर्शाये किन्तु वे अपने इस घेरे को चाहते हुए भी नहीं तोड़ सकते/ कांग्रेस के खिलाफ बने वातावरण को आखिर कब तक धन बल , बाहुबल से सामान्य बनाये रखा जा सकता है ? मंहगाई है , गरीबी है, घोटाले हैं , यौनाचार के मामले हैं इन पर पर्दा डालना फिलवक्त सम्भव नहीं/ और ऊपर से कांग्रेस का कोइ नेता खुद को झुकाने को तैयार नहीं है जिससे जनता को उनके प्रति हमदर्दी हो सके/  उनके दम्भ और उनके अतिआत्मविश्वास को जनता समझने लगी है/ वो उनके घड़ियाली आंसुओं से भी परिचित हो चुकी है जो कांग्रेसी आये दिन बहाते नज़र आते हैं/ सबसे बड़ी एक वजह यह भी है कि कांग्रेस का प्रधानमंत्री लोकप्रिय नेता के रूप में खुद को अब तक खड़ा नहीं कर पाया है/ आप देखिये मनमोहन सिंह प्रचार के दौरान कितने निरीह जान पड़ते हैं/ ये लोग समझते हैं कि उनकी ज्यादातर अनुपस्थिति का कारण क्या है? उनमें वो ऊर्जा दिखाई ही नहीं देती जो आज की जरुरत है/ और लगभग सारे कांग्रेसी अभी भी इस समीकरण पर विश्वस्त हैं कि भारतीय जनता पार्टी आंकड़ों के लिहाज से सरकार नहीं बना पायेगी / न बना सके/ किन्तु इसमें कांग्रेस खुद को कितना मजबूत बना रही है, यह प्रश्न तो होगा ही/ मान लीजिये ले-दे कर गठबंधन की सरकार फिर बन जाए / मगर देश की जनता में कांग्रेस के लिए प्रेम तो नहीं ही उमड़ सकता/ यह सरकार विडम्बना के रूप में देश के सामने होगी , क्योंकि भाजपा की तुलना में कांग्रेस की लोकप्रियता कमतर ही रहने वाली होगी/
कांग्रेस यानी सोनिया गांधी / यह जो फार्मूला है उसे खुद सोनिया को तोड़ना होगा , सोनिया को अपने नेताओं को सिखाना होगा कि वे व्यक्ति पूजक न बने रहें बल्कि देश की जनता के पूजक हों/ किन्तु यह भी  उनकी फितरत से बाहर की बात है/ लिहाजा कांग्रेस के पतन की सुनिश्चितता इसी बात में निहित है/ तो देखना दिलचस्प होगा इस बड़ी पार्टी के भविष्य को / 

Monday 9 December 2013

अब तो दिल्ली में 'जंग' का ही सहारा है

दिल्ली में चुनावी जंग के बाद जो रिजल्ट आया उसने दिल्ली की परेशानियां दुगनी कर   दी  है/ भारतीय़  जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच रस्साकशी में आसार  यह नज़र आने लगे हैं कि दिल्ली में अब कोइ तख्तोताज धारण नहीं करेगा बल्कि यह 'जंग' के रास्ते
जायेगी / यानी इस साल बने नए उप राज्यपाल नजीब जंग दिल्ली को सम्भाल सकते हैं/ इसकी पूरी सम्भावनाएं हैं/
पूर्व आईएएस अधिकारी और जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति रहे नजीब जंग इस साल जुलाई में ही दिल्ली के नए उप राज्यपाल बने थे  / वे मध्‍यप्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी रहे/  62 वर्षीय  जंग को तेजेंदर खन्ना के स्थान पर उप राज्यपाल बनाया गया था / बतौर नौकरशाह अपने कॅरियर में नजीब जंग कई अहम पदों पर रहे। इस जंग की विशेषता यह है कि ये असली ईमानदार आदमी है / कुलपति रहे तब केवल एक रुपया वेतन लिया यानी ४६ दिनों में ४६ रुपया इनकी वेतन आमदनी रही/ दिल्‍ली में जन्‍मे नजीब जंग ने दिल्‍ली यूनिवर्सिटी (डीयू) से ग्रेजुएशन किया था/ बाद में उच्‍च शिक्षा के लिए वो लंदन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स भी गए/ जंग भारत में उच्‍च शिक्षा की हकीकत पड़ताल करने वाली समिति सहित सरकार के कई अहम पैनलों में भी रह चुके हैं/ फिलवक्त उप -राज्यपाल के तौर पर जंग दिल्ली पुलिस और दिल्ली विकास प्राधिकरण के प्रभारी हैं/ वह दिल्ली सरकार के प्रशासनिक प्रमुख भी हैं/ जंग ने उप राज्‍यपाल के पद की शपथ लेने के बाद कहा था कि कानून व्यवस्था में सुधार और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना उनकी प्राथमिकता होगी/ हालांकि उनके काल में ही दिल्ली ने महिलाओं की सुरक्षा सम्बंधित भूचाल झेला है/
बहरहाल, अब हालात ऐसे हैं कि दिल्‍ली की सरकार बनवाने में जंग की अहम् भूमिका होगी /
 वे बड़ी पार्टी होने के नाते  बीजेपी को सरकार बनाने का न्‍योता देंगे/ भाजपा यह पेशकश कबूल करती है तो उसे विधानसभा में बहुमत साबित करना होगा/ जैसी स्थिति है उस लिहाज से  बहुमत मिलना नहीं है /
यानी बीजेपी दिल्‍ली में सरकार बनाने से इनकार करेगी और नजीब जंग दूसरी सबसे बड़ी पार्टी 'आप' को सरकार बनाने का न्‍योता देंगे / 'आप' ने भी सरकार बनाने से इनकार कर दिया है , ऐसे हालात में जंग दिल्‍ली में राष्‍ट्रपति शासन की सिफारिश करेंगे/ यदि जंग ऐसा  करते हैं तो गृह मंत्रालय केंद्रीय कैबिनेट को इसकी जानकारी देगा और कैबिनेट को राष्‍ट्रपति शासन लगाने का फैसला सही लगता है तो वह अपनी सिफारिश राष्‍ट्रपति को भेज देगा/ ऐसा ही होना भी है/
अब देखिये दिल्ली की जंग का हाल -
सम्भावनाओं से कौन नकार सकता है / सम्भावनाएं रखनी भी चाहिए और दिल्ली को बचाने के लिए कुछ सुखद हो ऐसा काम भी होना चाहिए/
देखें क्या क्या सम्भव हो सकता है? 
या तो भाजपा के साथ मिलकर आप- सरकार बनाए/ यानी 60 विधायकों का समर्थन/ किरण बेदी का कहना है कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (सीएमपी) बना कर छह माह तक सरकार चलाकर देखना चाहिए/ मगर 'आप' ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है/
अब बात आती है कि  अगर ;आप' के 28 के साथ कांग्रेस के आठ विधायक साथ आ जाएं तो 36 का आंकड़ा हासिल हो जाएगा/ जिसकी जरुरत है / पर ऐसा भी होना नहीं है/
तब फिर क्या होगा ? या तो 'आप' सदन से गैरहाजिर रहे/ सरकार भाजपा बनाए और विश्वास प्रस्ताव के समय 'आप' के विधायक सदन से गैरहाजिर हो जाएं/ ऐसे समय सदन में रहेंगे 42 विधायक/ और विश्वास मत के लिए चाहिए होंगे 22 विधायक/ भाजपा के पास यह संख्या है  /
यदि ऐसा भी अगर नहीं होता है तो भाजपा   सदन से गैरहाजिर  रहे/ सरकार आम आदमी  पार्टी बनाए/ विश्वास प्रस्ताव के दौरान भाजपा सदन से गैरहाजिर रहती है तो सदन में बचेंगे 38 विधायक/ ऐसे में बहुमत के लिए 20 विधायकों की जरूरत होगी जो 'आप' के पास है ही/
अब इतना भी कुछ नहीं होता है    तो दिल्ली 'जंग' के हवाले कर दी जायेगी और छ महीनों में फिर से चुनाव होंगे / 

'आप' की देखिये राजनीति

यह दिल्लीवालों की मूर्खता ही है / हाँ, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने वाला मूर्ख ही कहलाता है/ भले दिल्ली वाले यह न मानें, वैसे भी कौन मूर्ख खुद को मूर्ख कहता है / बहरहाल, यह मूर्खता नहीं तो क्या कि आपने अपनी दिल्ली में किसी को बहुमत नहीं दिया/ बहुमत न मिलना किसी पार्टी विशेष के लिए उतने घाटे का सौदा नहीं है जितना दिल्ली वालों के लिए है/ क्या आप जानते हैं दोबारा चुनाव होने की स्थिति में आपकी जेब पर इसका कितना असर होता है? आपके कामकाज पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है? यह सब आप दिल्ली वाले भले न जानें पार्टियां जानती हैं/ आप अब ये विचार करें कि जो फैसला आपने दिया है उस फैसले को आपकी जीती हुई पार्टी ही नहीं मान रही/ उनका दम्भ देखिये कि वे दोबारा चुनाव करा सकती हैं, अपनी जनता की फ़िक्र उन्हें  नहीं है/ 'आप' वाले बड़ी शान से इसे जनता का चुनाव कह रहे थे/ जनता जीती है भई, अब क्यों पीछे हट रहे हो? भाजपा और आप , इन दो पार्टियों को जनता ने समर्थन दिया / इन दोनों का फर्ज बनता है कि आपसी दम्भ छोड़कर सरकार बनाएँ और दिल्ली को बचाएं/ मगर अरविन्द केजरीवाल साहब को यह पसंद नहीं / उनका कहना है हमें बहुमत नहीं दिया/ कितना अहंकार है इस आदमी में, कितनीबड़ी राजनीति खेलने का विचार इस आदमी के दिमाग में है क्या आप जानते है? नहीं जानते/ होना तो यह चाहिए कि अरविन्द को अपनी जनता के लिए भाजपा का समर्थन करते हुए विपक्ष में बैठना चाहिए/  और दिल्ली के लिए बेहतर काम करने की नीति पर चलना चाहिए/ मगर उन्हें लोगों से क्या मतलब / उन्हें तो आप पहले बहुमत दीजिये फिर सत्ता पर बैठाइये/
सिर्फ और सिर्फ अरविन्द केजरीवाल की वजह से दिल्ली को दोबारा चुनाव देखने पड़ सकते हैं/ और अगर ऐसा है तो केजरीवाल की ही वजह रहेगी कि वे  प्रशासन, बजट और खर्च की पेचीदगियां ला खड़ा करेंगे/  सबसे बड़ी दिक्कत आम कामकाज से लेकर ट्रेड, इंडस्ट्री, फाइनेंस, हाउसिंग, पीडब्ल्यूडी के कई लंबित प्रोजेक्ट्स के लिए होगी , जिसका खामियाजा आम जनता को भुगतना है/ ऐसे में अब आप समझिये कि आपने 'आप' को मत देकर कितना बड़ा नुक्सान किया है / अगर आपको 'आप' को ही जिताना था तो बहुमत देते / या फिर भाजपा को ही सरकार बना लेने की स्थिति दे देते / भाजपा तो सरकार बनाना चाहती है / उसे दिल्ली की फ़िक्र है किन्तु केजरीवाल को फिक्र नहीं / शायद सम्भव है दोबारा चुनाव में जनता इस सच्चाई को समझ सके/ 

Wednesday 27 November 2013

'आप' सिरदर्द , बीजेपी की बल्ले बल्ले , करहाती कांग्रेस

तीन राज्यों में चुनाव निपट गए/ फैसला आना है/ दो राज्य बचे हैं और दोनों राज्य फिलहाल कांग्रेस के कब्जे वाले राज्य हैं/ राजस्थान और दिल्ली/ राजस्थान में केसरिया लहर है और दिल्ली में 'आप' वाले भारतीय जनता पार्टी के लिए मुसीबत बने हुए दीखते हैं/ हालांकि एक सर्वे ने बीजेपी को बहुमत दिलाया है तो कांग्रेस को मुंह की खिलाई है और 'आप' को १० सीटें तोहफे में दी है/ किन्तु 'आप' के अंदरूनी सर्वे के मुताबिक़ बीजेपी को दस सीटे मिलेगी और खुद दिल्ली की सत्ता पर काबिज होगी/ माहौल देखकर कहें तो 'आप' का यह ओवर कांफिडेंस है और वे मतदाताओं को अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करने में लगे हुए हैं/ बीजेपी को हानि होगी यह तय है किन्तु हर्षवर्धन को तख्तोताज पर बैठे पाया जा सकता है/ शीला दीक्षित और अरविन्द केजरीवाल सामान सीटों के आसपास खड़े दिख सकते हैं/ यह 'खबर गल्ली' का अपना आकलन है/ 'खबर गल्ली' ने मतदान के प्रतिशत का भी एक आकलन निकाला है / दिल्ली में मतदान ८० प्रतिशत होने की सम्भावनाएं है और बताया जाता है कि अगर मतदान ज्यादा हुआ तो इसका फ़ायदा भी बीजेपी और 'आप' को ज्यादा होगा/ कांग्रेस के लिए मुसीबत ही ठहरी / यानी 'आप' सिरदर्द होगी /
उधर राजस्थान  की स्थिति सीधे सीधे केसरिया रंग में रंगी दिख रही है/ वैसे राजस्थान अपनी परम्परा को निभाने में उस्ताद है/ एक बार कांग्रेस , दूसरी बार बीजेपी / उलट-पलट कर सत्ता को परखती राजस्थानी जनता इस बार बीजेपी के मूड में है / हालांकि वसुंधरा राजे की अपनी छवि के चलते यह माहौल नहीं होगा बल्कि नरेंद्र मोदी के लालच में राजस्थान बीजेपी के पक्ष में अधिक झुकी नज़र आती है/ अशोक गेहलोत खुद अपनी सीट बचा लें तो उनके लिए बड़ी  बात होगी, ऐसा माना जा रहा है/ यानी राजस्थान इस बार बड़े परविर्तन की ओर संकेत देता है/ यहाँ वैसे भी वोटों का प्रतिशत अच्छा पड़ता है , और इस बार भी ७० से ८५ प्रतिशत मतदान होने की सम्भावनाएं हैं/
आप इन पाँचों राज्यों के परिणाम का एक अंदाज़ लगाएं तो मिजोरम को छोड़ कर चारों राज्य बीजेपी के पक्ष में जाते दीखते हैं/ यह आनेवाले लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस को एक चुनौती भी होंगे/ दरअसल कांग्रेस ने खुद अपनी छवि खराब की है/ बीजेपी की जीत कोइ बीजेपी से प्रेम के तहत नहीं होगी बल्कि कांग्रेस के पास अपना कोइ बेहतर या  दबंग लीडर के न होने से होगी/ वैसे भी कांग्रेस का पूरा कार्यकाल जनता के हित में कम और अहित में ज्यादा नज़र आया/ आप अंतर्राष्ट्रीय मायाजाल को छोड़ दीजिये , देश का एक आम नागरिक सिर्फ रोटी-कपड़ा-मकान ही देखता है/ और जब उसे ये नहीं मिलता तो उसे सरकार में खामियां दिखती हैं/ कांग्रेस आम जनता को अपने विशवास में लेने में कामयाब नहीं हुई है और यही वजह है कि उसे पटखनी खानी होगी/
बहरहाल, १ दिसम्बर और ४ दिसम्बर को मतदान हैं / इसके बाद फैसले की घड़ी होगी / तब तक सिर्फ आकलन हैं, सर्वे हैं और सम्भावनाएं हैं/ फैसले क्या निकलते हैं यह तो जनता जनार्दन के 'मत' ही दिखलायेंगे /  

Monday 18 November 2013

सचिन लायक नहीं थे इस 'भारत रत्न' के / क्यों ?

भावनाओं  के सागर में हाथ धोने का काम किया है कांग्रेस ने और सचिन के ऊपर इतनी बड़ी जिम्मेदारी थोप दी है जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना भी पड़  सकता है/ सचिन इस वक्त भारत रत्न के हकदार नहीं थे/ हाँ, आज से २० साल बाद उन्हें यह सम्मान दिया जाता तो उचित था/ वे महान तो हैं ही मगर  अभी तो उनकी असली जिंदगी शुरू होनी है जिसमें तय होगा कि वे कितने बड़े महान खिलाड़ी रहे/ सचिन खुद इस षड्यंत्र को भांप नहीं पा रहे हैं, वे खुद अंधे हो चले हैं अपने सम्मान और पुरस्कार की आंधी में/ वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उनको किस तरह से इस्तमाल कर लिया गया है/  और  किया जाता है/
पहली बात - भारत रत्न माने क्या ? ये एक तरह से लाइफ टाइम अचीवमेंट जैसा है/ यह अपने आप में एक पूरा जीवन है / यह पुरस्कार अन्य पुरस्कार जैसा नहीं , इसमें भारत की शान है , भारत का गर्व है/ महज २४ साल का करियर/ ४० साल की उम्र/ आने वाले वक्त में इस सम्मान की लाज बचाये रखने में सचिन को कितनी मुश्किलों का सामना करना होगा , ये वे नहीं जानते/ और इससे उन्हें कुछ भी लेना देना नहीं जिन्होंने ये सम्मान सचिन को दिलवा दिया/
दूसरी बात - सचिन किसी भी रूप में ध्यानचंद से पूर्व इस सम्मान के  हकदार नहीं थे/ अब इसके बाद अगर ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाता है तो यह ध्यानचंद का अपमान ही कहा जाएगा , जिसने गुलाम भारत के वक्त अपने देश को विश्व में आगे रखा/ जिसने अपने देश के लिए फटेहाल रहना स्वीकार किया न कि हिटलर की सेना में ऐशो आराम से/ जिसने अपने देश की हॉकी को ओलम्पिक स्वर्ण से एक बार नहीं तीन तीन बार संवारा / जिसने अपना सबकुछ न्योच्छावर  करते हुए देश को जीवन सौंप दिया / जिसने  दिल्ली के एम्स   अस्पताल  के सामान्य वार्ड में  दम तोड़ा /
तीसरी बात- क्रिकेट कार्पोरेट जगत का खेल है/ ये जो बोर्ड है यह भी भारतीय सरकार के अधीन नहीं है/ यह एक निजी संस्था है/ ये सिर्फ एक क्लब भर है / अमीर क्लब/ क्लब के हित में खेलते हुए खिलाड़ी पैसा कमाता है / सचिन ने भी खूब कमाया / आप उन्हें अरब पति मान सकते हैं/ हालांकि इस सम्मान में उनकी अमीरी से कोइ लेना देना नहीं है , बल्कि मैं दर्शाना  यह चाह रहा हूँ कि आपने भारत के लिए क्या किया ? सही मायने में देखा जाए तो भारत के लिए सचिन ने कभी नहीं खेला सिवा बी सी सी आई नामक संगठन के/
चौथी बात- आप सचिन के प्रेमी है, प्रशंसक हैं, इसलिए बात जल्दी हजम नहीं होगी / तर्क में आप कहते हैं सचिन बगैर बोले कितना कुछ गरीब जनता-बच्चों के लिए कर रहे हैं/ ठीक है।  बहुत अच्छी बात है/ किन्तु यह बात भारत रत्न के मापदंड में पूरी तरह फिट नहीं बैठती / उसका एक प्वाइंट भर हो सकता है/ क्योंकि भारत में ऐसी लम्बी सूची है जिन्होंने अपना पूरा जीवन बगैर किसी प्रचार के जनता के हित में लगा दिया है , लगा रखा है/
पांचवी बात- क्रिकेट मैच फिक्सिंग को लेकर कई बार कटघरे में खड़ा हुआ है/ हाँ, सचिन जब टीम में थे तब भी उनकी टीम के खिलाड़ियों पर मैच फिक्सिंग की गाज गिरी/ खिलाड़ी प्रतिबंधित हुए/ क्या सचिन को बिलकुल भी पता नहीं चला कि ये सब माज़रा है क्या? ड्रेसिंग रूम में हवा तक नहीं लगी होगी ? सचिन ने अपना मुंह हमेशा बंद रखा है/ चलिए मान लेते हैं सचिन के मुंह पर बोर्ड का ताला  लटका हो, किन्तु अब तो उन्हें इस तरह के मामलात  की  पोल खोलनी चाहिए/ आप भारत रत्न हैं, आपकी नाक के नीचे क्रिकेट मैला  होता रहा और आप बस दर्शकों की तरह देखते रहे, ऐसा कैसे सम्भव है ? अगर सचिन आने वाले कल में कभी इस तरह के किसी भी विवाद में पड़ जाते  हैं तो यह हमारे भारत रत्न का अपमान नहीं होगा ? अभी तो वे महज ४० साल के हैं और ताज़ा ताज़ा रिटायर हुए हैं/
छठी बात - सचिन खुद ये जानते हैं कि उन्हें भारत रत्न का सम्मान देकर सरकार ने खासकर कांग्रेस ने फंसा दिया है/ अगर वाकई वे बड़े महान खिलाड़ी होते और खेलों के प्रति उनके मन में सम्मान होता तो वे बेहिचक कह सकते थे कि ये सम्मान पहले ध्यानचंद को दिया जाना चाहिए/ अभी मैं खुद को इस लायक नहीं मानता/ जबकि ऐसा नहीं हुआ, क्यों? क्योंकि क्रिकेट के रिकार्ड्स की तरह ही उनके मन में भारत रत्न का लालच था / आप कैसे कह सकते हैं कि जितने  शतक आपने बनाये वो बस अपनी टीम को जितवाने के लिए बनें? इसमें आपकी कोइ लालची भावना नहीं थी ? कोइ भी खिलाड़ी हो, पहले खुद के लिए खेलता है/ बाद में सारे क्रियाकर्म आते हैं/
सातवीं बात- अभी भी सचिन प्रेम में अंधे बने लोगों को सच्ची बात गले उतारने में कठिनाई आएंगी , जो भारत रत्न की अहमीयत नहीं जानते/ उनसे मेरी विनती है कि वे इस आलेख को न पढ़ें या पढ़ भी लें तो मेरी आलोचना शुरू कर दें/ किन्तु देश के इस महान पुरस्कार की जो दशा आज मुझे दिखाई  दे रही है वह मुझे पीड़ा पहुंचा रही है/ क्योंकि इसमें सिर्फ और सिर्फ कांग्रेसी  कूटनीति की बदबू है/ सचिन को कैसे पच जा रहा है यह सब, वे जानें / कितना पचा लेने की क्षमता उनमें है ये उनकी अपनी ताकत/ महानता इसे नहीं कहते सचिन/ जबकि सचिन महान है/ यह कितना बड़ा विरोधाभास दिखने लगा है/ 

Friday 15 November 2013

''सचिन ने कभी क्रिकेट खेला ही नहीं''

सचिन ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया / २४ साल के अपने करियर में सचिन ने कभी क्रिकेट नहीं खेला/ आपको आश्चर्य होगा यह जान कर मगर सच यही है/ अगर सचिन क्रिकेट खेलते तो आज जैसा उनके लिए माहौल है वैसा नहीं बनता/ दर असल क्रिकेट उन्हें खेलता रहा/ क्रीज पर क्रिकेट रहा/ आंकड़ों में क्रिकेट रहा/ किताबों से बाहर क्रिकेट आया/ अपनी परिभाषा को दृश्यमान बनाकर क्रिकेट ने दर्शकों का मन मोहा/ हर जगह क्रिकेट ही रहा जो प्रदर्शन करता रहा/ जो सचिन को खेलता रहा / दुनिया भर के समाचार पत्र-पत्रिकाएं सचिन के नाम से रंग जाएँ मगर सचिन जब भी मैदान पर उतरे , क्रिकेट उनको एन्जॉय करता रहा/ क्रिकेट के अपने इतिहास में सचिन ही एकमात्र खिलाड़ी पैदा हुआ जिसे खेल कर क्रिकेट ने खुद को महान  बना लिया / उसे बाज़ार भी तो सचिन ने बनाया/ उसे बुखार का रूप भी तो सचिन ने दिया/ उसे हर फिल्ड में ऊपर कर दिया/ क्रिकेट सचिन के हाथों दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता रहा/आप देखेंगे तो यही पाएंगे कि क्रिकेट के खेल को , उसकी तकनीक को जिस तरह से इजाद किया गया था , ठीक वैसा ही वो सचिन से चिपक कर लाइव दिखता रहा/ आप क्रिकेट की कोइ भी किताब खोल लें और उसके हर एंगल को बारीकी से जांचे फिर क्रीज पर बल्लेबाजी करते हुए सचिन को देख लें तो दोनों में ज़रा भी फर्क नजर नहीं आयेगा/ जैसा किताब में लिखा , वैसा ही सचिन के माध्यम से क्रिकेट मैदान पर बहा / क्रिकेट में जो संगीत बसा हुआ है , उसे ठीक उसी अंदाज में सचिन ने स्वर दिया / या सचिन क्रिकेट का वाद्य यंत्र बनकर प्रस्तुत हुआ/ दुनिया भर के मैदानों पर सचिन स्वर का गूंजना , और क्रिकेट रिकार्ड बुक में नए नए  रागों के साथ अंकित होना यही दर्शाता है कि सचिन को क्रिकेट खेलता रहा/ जैसे संगीत में तानसेन /

''बहुत से कहते हैं सचिन 
तो बस क्रिकेट के लिए पैदा हुआ / 
मैं ऐसा नहीं मानता , इसके उलट मेरा 
कहना  है क्रिकेट सचिन के लिए इजाद हुआ/'' 

बहुत से कहते हैं सचिन तो बस क्रिकेट के लिए पैदा हुआ / मैं ऐसा नहीं मानता , इसके उलट मेरा कहना है क्रिकेट सचिन के लिए इजाद हुआ/ सचिन से पहले तक ये नित्य खिलाड़ियों के सहारे अपने आपको तराशता रहा और जब सचिन क्रीज पर उतरा क्रिकेट ने उसे अपने आप में समेट  लिया/ २४ साल के इस सफ़र में क्रिकेट सचिन को लेकर फलता फूलता रहा/ अपनी अदा, अपना रोमांच , अपना जादू बिखेरता रहा/ सचिन का हर अंग क्रिकेट से लीपापुता रहा/ और यही वजह है कि सचिन के साथ दुनिया के जितने खिलाड़ियों ने क्रिकेट खेला वे सारे के सारे अमर हो गए/ या उनके जहन  में सचिन के साथ के  संस्मरण हमेशा हमेशा ले लिए अमर हो गए / सिर्फ खिलाड़ी ही क्यों? उन तमाम लोगों के लिए भी जो अपने अपने तरीके से सचिन से मिले हों/ सचिन से हाथ मिलाने का मतलब है आपने क्रिकेट से हाथ मिलाया है/ मुझे तो हमेशा क्रिकेट ही खिलखिलाता दिखा है / अन्यथा कोइ वजह नहीं होती कि कोइ इंसान इमोशन में बहक न जाए/ क्रिकेट सचिन के अंदर रग-रग में समाया है तो वो इंसान ही कब रहा / शायद इसीलिये क्रिकेट का भगवान बना दिया गया सचिन को/
मैं सचिन का समर्थक कभी नहीं रहा/ खेल  का प्रशंसक रहा और क्रिकेट के लिए ही सचिन  को पूछता रहा/ आज भी क्रिकेट ही सचिन का सबकुछ है/ सम्भव है अब क्रिकेट आराम करेगा/ सचिन को सचिन की तरह जीने देगा/ और अब हो सकता है कि सचिन क्रिकेट खेले/ क्योंकि सचिन क्रिकेट को लेकर अपना भविष्य अब बनाएंगे / मैदान से बाहर/ 

Wednesday 13 November 2013

पैसा उगाने की घटिया सोच को तवज्जो

नए अखबारों के साथ समस्या यह है कि वो एक अलग ही खुमारी में रहते हैं/ लीक से हट कर , कुछ अलग कर देने वाली सोच को लेकर वे मैदान में उतरते हैं और उसी पटरी पर चलने लगते हैं , जो परम्परागत है/ कंटेन की बात तो खूब करते हैं मगर उसे उसी रूप में पेश नहीं कर पाते और भटक जाते हैं/ इसका सीधा सा कारण है वे 'बेहतरी' को  नजर अंदाज़ करते हैं, अनुभव -प्रतिभा को किनारे रखते हैं  और अपने अहम् में सफ़र करते हैं/ इससे हालांकि 'बेहतर' को कोइ हानि नहीं होती मगर उनके सफ़र में व्यवधान पैदा होकर वे अकाल मौत मारे जाते हैं/ 

पिछले दिनों अखबारों की गिरती दशा पर चर्चा आयोजित की थी , कुछ प्रबुद्धजनों ने अपने विचार रखे , कुछ प्रबुद्ध जन अभी भी इस पर चर्चा कर मंथन कर रहे हैं/ यह अच्छी बात है/ ऐसा  होना भी चाहिए / हमारा प्रयास है कि अखबार को उसकी दिशा मिले / इस क्रम में  दैनिक जलतेदीप , जोधपुर के पूर्व समाचार संपादक विजय कुमार मेहता ने अपने विचार पेश किये, आज उनके विचारों से चर्चा को आगे बढ़ाते हैं/

''गुणी और ज्ञान से भरे शब्दों के माली उसे चाहिए भी तो नहीं''

''कोई बहुत पुरानी बात नहीं है ..आज से सोलह बरस पहले तक जिला स्तरीय या राज्य स्तरीय समाचार पत्र जो सामग्री परस  रहे थे, उसमे रचनात्मक लेखन की झलक दीख जाती थी, तब एक अख़बार ने पाठकों के उस तबके की नस पकड़ी जिस तबके ने टीवी पर आने वाले फूहड़ कार्यक्रमों, स्तरहीन शब्दज्ञान रहित सामग्री को वाह वाही देनी प्रारंभ की थी... उसी तबके ने 'हमको क्या पसंद है' की तर्ज पर अख़बारों की 'उस तरह की सामग्री' को तरजीह देनी शुरू कर दी.....एक बड़े अखबार की नासमझ नयी पीढ़ी ने उस नवागंतुक अखबार की फ्री में इतनी पब्लिसिटी कर दी जो तब लाखों रुपये खर्च करने से नहीं हो सकती थी ...... ..फलत: आज वह अखबार जिले और राज्य से बाहर निकल कर राष्ट्रीय स्तर पर 'प्रतिष्ठित' हो चुका है.....जिले और राज्यों के तमाम छोटे अखबार उस बड़े समूह ने निगल लिए हैं.... ऐसे में उन बर्बादी की कगार पर पहुँच चुके छोटे अखबारों ने भी रचनात्मक लेखन की तरफदारी छोड़ जैसे तैसे पैसा उगाने की घटिया सोच को तवज्जो दे दी... आज 1000 या 2000 प्रतियाँ छापने वाला अखबार जो सरकारी खातों अनुसार डेढ़ से दो लाख प्रतियाँ छाप रहा है ... सरकारी  विज्ञापनों और बड़ी कोमर्शियल रेट्स पर छपने वाले विज्ञापनों की चाह में इतना भूखा हो गया है की उसकी आपूर्ति ............जैसे भरपेट मिल जाने के बाद भी वो अतृप्त हो ..उसे और धन चाहिए ..बस धन ..... तब ...
ऐसे वक्त में गुणी और ज्ञान से भरे शब्दों के माली उसे चाहिए भी तो नहीं ....उसे केवल पैसे से सरोकार हो.... नाम में क्या रखा है ....उन ज्ञानवर्धक पत्रिकाओं का अस्तित्व भले फूहड़ शब्दों, बेतरतीब शैली और गोशिप से भरे पत्र पत्रिकाओं ने लील लिया हो ... पर इनका पेट कमर से नहीं लगेगा ... आज की पीढ़ी का पत्रकार शब्द का मर्म समझे बिना अपने को उसकी तह में घुसा समझ व्याख्या में यकीन रखता है .. बिन सोच इस तरह से मंतव्य थोप देना .और ऐसी ही युवा पीढ़ी भी है जो 'इन्स्टेंट' के मजे में मूल का स्वाद चख ही नहीं पाती ....आज के हिंदी अखबारों के नहीं टिक पाने की बड़ी वजह है ...साहित्यिक सामग्री से ज्ञान चूसने से पीछा छुड़ाती नयी पीढ़ी ... कॉर्पोरेट श्हाएँ बाएं की गणित लगता है थोड़े समय बाद 'रचनात्मक' शब्द पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देगी ......अंग्रेजी स्कूल की पक्षधर नयी पीढ़ी को हिंदी के बहुतेरे सरल से शब्दों का मतलब समझने की गरज तक नहीं है...ऐसे में हिंदी अखबारों का उत्थान हो तो कैसे 

Saturday 9 November 2013

मुम्बई के गड्ढे या गड्ढों में मुम्बई ?

गड्ढों में चलता करोड़ों का खेल  

मुम्बई देश  की आर्थिक राजधानी है/ मुम्बई माया नगरी है/ मुम्बई बेमिसाल है/ यह इससे भी अधिक अच्छी मुम्बई से बाहर बैठे लोगों के लिए हो सकती है/ किन्तु जो भी एक बार मुम्बई  की सड़कों से गुजरता है उसे यकीन नहीं होता कि वह मुम्बई में है या ठेठ गाव की किसी सड़क पर जो शहरी दुनिया से एकदम अलग है / यह सच्चाई मुम्बई के सुनहरे दृश्यों पर कालिख है/ सारा मज़ा बिगड़ जाता है जब आप इसके उपनगरों से होते हुए मुम्बई दर्शन के लिए निकलते हैं/ सड़कें माशा अल्लाह उबड़-खाबड़ हैं/ सुधारी जाती है / उखड जाती है/ और आपको उखड़ी सडकों पर ही चलना होता है/ मज़ा यह कि अभी बनी सड़क , अभी ही खोद  दी जाती है / कारण पाइप लाइन डालनी है, केबल डालना है इत्यादि / कारण मौजूद है/ किन्तु सड़कें मौजूद नहीं रहती/
आम जनता के दर्द भी गली मोहल्ले की चर्चा के दौरान रीलीज होते रहते हैं/ कुछ आंदोलन भी होते हैं/ अखबारों  में बड़े बड़े पेज सजते हैं/ राजनीतिक पार्टियां एकदूसरे पर सडकों के माध्यम से कीचड उछालती है / मगर सड़क है कि अपने गड्ढों से अलंकृत ही रहती है/ दुर्घटनाएं सामान्य है / आप  सकुशल चल सकें यह असामान्य और दुर्लभ कार्य है/ फिर भी मुम्बई है और मुम्बई की शान है/
सड़कों की कायापलट     के  लिए टेंडर    निकाले  जाते  हैं/ सड़कों पर रोलर  भी चलता  है , डाम्बर  भी डलता  है/ पत्थर - गिट्टी  से मजबूती  भी दी जाती है/  मगर क्या हो जाता है कि करोड़ों की लागत गड्ढों में चली जाती है और मुम्बईकरों को गड्ढों में सड़क ढूंढनी पड़  जाती है/ मामला अदालत तक भी जाता है कोर्ट फटकार भी लगाती है , मगर परिणिति वही ढाक  के तीन पात वाली / आखिर किया क्या जाए? इसका कोइ समाधान न तो मुम्बई महा नगर पालिका के पास है और न ही टेंडर हड़प ले जाते ठेकेदारों के पास/ दोनों के पास समाधान का न होना ही उनके अपने समाधान के लिए आवश्यक भी है/ आप ही देख-जान लें कि कोइ दस वर्षों में १२ हजार करोड़ रुपये सड़कों  में ठोंक   दिए  गए मगर एक एक रुपयों की हालत यह हो गयी कि उसके चिथड़े भी ढूढ़ते नहीं दीखते/ आम नागरिक आखिर किसकी तरफ उंगली उठाएगा ? वह या तो नगर सेवक पर निशाना साधेगा , नहीं तो अधिकारियों  पर / या फिर उसके सामने ठेकेदार होंगे / इन पर तीर इसलिए भी चलाये जाते हैं क्योंकि यहीं है जो मुम्बई की सडकों के नाम पर करोड़ों का व्यय  करते हैं/ यह व्यय जाता किधर है? मुद्दा यही है / तमाम राजनीतिक पार्टियां, सत्ताधीन नेताओं को कटघरे में खड़ा करती हैं/ किन्तु कोइ भी सडकों की खस्ता हालत के सन्दर्भ में सड़क पर उतर कर सड़कें नहीं बनवाता / वही गिने चुने ठेकेदारों के पास काम जाता है/ वही ठेकेदार वैसा ही काम करवाते हैं/ मगर पैसा हर समय से अधिक ही लेते हैं/ आपकों बता दें कि कोइ बारह  साल पहले यानी २००० में सड़कों के टेंडर महज एक से पांच करोड़ के बीच में होते थे / सड़कें भी होती थीं/ यानी कम गड्ढों वाली सड़कें/ प्रति सड़क के हिसाब से ठेका होता था/ बाद में शायद हुआ यह कि सड़कों के नीचे स्वर्ण छुपा दिखा , तभी न एक से पांच सड़कों के लिए टेंडर निकाले जाने लगे और यह १० से १५ करोड़ में या फिर १५ से २० करोड़ तक जा पहुंचा/ बदलाव हुए/ 2012   आते आते तो मामला १०००  करोड़ तक पहुँच गया / और सड़कों का क्या हुआ? पहले दो चार गड्ढे हुआ करते थे / धीरे धीरे वो पूरी तरह गड्ढों में तब्दील हो गयी/ यानी बारिश का मौसम आया ही था कि सड़कें पानी में बहने  लगी/ नामी गिरामी कंपनियों के ठेके में बनीं सड़कें अपनी बदकिस्मती पर रोने लगी, नागरिक सड़कों के आंसू अपनी आँखों में समेटते हुए इन गड्ढों में सफ़र करने पर मजबूर हो गए/
अब फिर करोड़ों का टेंडर निकला जाना है/ पुराने काम यथावत है/ आरोप-प्रत्यारोप जारी   है/ यानी सबकुछ होता है मगर सड़कें नहीं बनती / और अगर बनती भी हैं तो बहुत जल्द मरने के लिए बनती  हैं/ इन कम उम्र सड़कों को दीर्घायु बनाये जाने जैसा कुछ भी नजर नहीं आता/ या तो वाकई नज़र नहीं आता या फिर नागरिकों की आँखों में मोतियाबिंद हो गया लगता है/ क्योंकि न नेता, न बीएमसी, न अधिकारी और न ठेकेदार अपना दोष मानने को तैयार है/ दोषी हैं तो नागरिक है / वे ही भुगतें/  

Friday 8 November 2013

सट्टे के बट्टे पर बीजेपी ठप्पे


चुनाव हो तो सट्टेबाजों की चांदी रहती है

चित्र गूगल से साभार 
देश में चुनावी माहौल है/ फिलवक्त विधान सभा चुनावों का तंदूर  सुलग रहा  है और इसमें पार्टियां अपने अपने तरीके से  रोटियां सेंकने में जुटी है/ किसकी कौनसी रोटी स्वादिष्ट हो जाए , किसकी रोटी जल जाए कोइ नहीं जानता मगर सर्वे से लेकर सट्टा बाज़ार तक अपने अपने चिमटे से जली -पकी-सिंकी रोटियां छांट छांट   निकाल कर पेश करने पर तुला है/ इन रोटियों की गर्म खुश्बू किसी पार्टी की नाक में दम करती नज़र आ रही है तो किसी पार्टी के पेट में चूहे कुदा  रही है/ यही मज़ा है चुनाव का/ हालांकि अभी मतदान में वक्त है/ यही
  वक्त तो होता है जब  सट्टा बाज़ार अपनी दिवाली मनाता  हैं/  आप को हैरत होगा यह जानकार कि जिस तरह से सर्वे के नतीजे पार्टियों को परेशान और खुश कर देते हैं ठीक उसी तरह से सट्टेबाज़ार का रुख भी पार्टियों की साँसों को ऊपर-नीचे करता रहता है/ जबकि इन दोनों का कोइ शत प्रतिशत आधार नहीं होता / किन्तु राजनीतिक पार्टियों को हवा का रुख भांपने में मदद मिल जाती है/ अब तक के सर्वों में कांग्रेस की बुरी गत रही है तो कांग्रेस ने इस तरह के किसी भी पोल- टी वी चॅनल बहस  आदि  में शामिल होने से इंकार कर दिया है / भारतीय जनता पार्टी के कानों में उसका डंका बजता गूँज रहा है / अन्य पार्टियां जिसमें आम आदमी पार्टी भी है बहस इत्यादि में अपनी बातें रखने को लालायित हैं/ पर इन सबसे अलग सट्टेबाज़ार का रुख देख-जानकार भाजपा की पौ बारह मानी जा सकती है/ क्योंकि सट्टाबाजार भाजपा के पक्ष में झुका हुआ दिख रहा है/
'खबर गल्ली ' के पास जो जानकारियां हैं उसमें भाजपा पर शानदार तरीके से  दांव लगाया जा रहा है/ दूसरे  नंबर पर कांग्रेस है/ वैसे तो ये ही दो पार्टियां ही हैं जो देश के राजनीतिक माहौल का केंद्रबिंदु हैं/ सट्टेबाजार के रुख को किसी भी तरह से मान्य नहीं किया जा सकता किन्तु इससे चुनावी नतीजों से पहले तक का आत्मबल कायम रखा जा सकता है/ भाजपा के लिए शायद यह सोने पर सुहागा ही है कि एक ओर सर्वे उसे विजयी बता रहे हैं तो दूसरी और सट्टेबाज़ार में भी उसकी तूती बोल रही है/ बताया  जाता  है कि  कोइ १० से १५ हजार करोड़ का अब तक भाजपा के फेवर में सट्टा लगाया जा चुका है/ आइये अब आपको इस बाज़ार के रुख का दर्शन करा देते हैं/
सट्टेबाज़ार में हासिल की जाने वाली सीटों के आधार पर भाव लगाया जा रहा है/ किसके पास कितनी सीटें होंगी / यानी जिसके पास जितनी अधिक सीटें होंगी उसे उतनी  तयशुदा रकम दी जायेगी / जानकारी  और चर्चा के मुताबिक़ इस वक्त जो खबरें हैं उसमें दिल्ली  की ७० सीटों में अगर २८ सीटें भाजपा के पक्ष में जाती हैं तो बुकीज करीब २४ पैसे अधिक देंगे / इससे कम सीटें रहीं तो समझो आपको अपनी रकम गंवाना होगी / मजा यह है कि अधिकतर सट्टेबाज़ भाजपा पर दांव लगाना चाह रहे है/ ऐसे ही राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसग़ढ़ का हाल है/ बताया जाता है कि दिल्ली को छोड़ कर अन्य राज्यों में भाजपा को अधिक फायदा है / दिल्ली में 'आप ' भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है/  
सट्टेबाजार के जानकारों का मानना है चुनाव के नजदीक आते आते करोड़ों अरबों के वारे न्यारे हो जाया करते हैं/  क्योंकि सिर्फ सीटे ही नहीं बल्कि नेताओं की जीत हार पर भी पैसा लगाया जाता है/ हाल ही में जो टिकिट बंटवारे के बाद हुए घमासानों से माहौल गरम हुआ तो इसका असर सट्टेबाज़ार पर भी पड़ा/ दर असल नेताओं के मूड , उनके विरोध, उनके तेवरों से भी इस बाज़ार के ग्राफ पर अंतर पड़ता है/ जो हो पर सट्टेबाज़ार में इन दिनों राजनीतिक गरमाहट से चांदी ही चांदी है/ 

Wednesday 6 November 2013

सचिन का सच


सचिन तेंदुलकर , क्रिकेट का बेताज बादशाह है/ नो डाउट / सचिन तेंदुलकर बाज़ार का एक जबर्दस्त बिकाऊ आइटम है/ नो डाउट/ अब हालात ऐसे हैं कि इस बादशाह के सहारे जितनी अधिक  कमाई की जा सकती है , करने पर तुले हैं लोग/ न केवल बी सी सी आई बल्कि छोटे -बड़े हर तरह के व्यापारी/ सट्टेबाज/ यहाँ तक की पान बीड़ी दुकान  वाले भी / माहौल कुछ ऐसा बना दिया गया है कि ये माल अब बाज़ार से मानो उठने वाला है इसलिए जितना निचोड़ा जा सके निचोड़ लिया जाए/ खुद सचिन बेचारे बने हुए हैं/ अपनी ख्याति के आलोक में उन्हें यह भी नहीं दिखाई दे रहा कि उनको एक वस्तु के तौर  पर लाकर खड़ा कर दिया गया है/ वैसे वे जानते भी होंगे किन्तु यह भी एक तरह का नशा है / बाज़ार में बिकने का नशा/ सचिन खुद बिक रहे हैं/ यह बिक्री भी अनोखी है/ पूरे देश में सचिन को एक ऐसे खिलाड़ी के रूप में सिद्ध कर दिया गया है जैसे इस देश में सचिन के अलावा दूसरा कोइ खिलाड़ी ही नहीं जिसने देश का नाम रोशन किया हो / क्रिकेट की यही तो महिमा है /  क्रिकेट है क्या ? खेल? नहीं/ खेल जैसे किसी जुए को भी कहते हैं यह भी ठीक वैसा ही है/ मेरी इस बात से क्रिकेट प्रेमियों को धक्का लग सकता है / धक्का उन्हें भी पहुंचेगा जो क्रिकेट के वाहक हैं/ सचिन इस जुए के  एक कीमती प्यादे भर हैं / यह अलग बात है कि उनकी कलात्मकता ने क्रिकेट की परिभाषा रची है/ पर इस रचने के कारण ने ही उन्हें अप्रत्यक्ष तौर  पर वस्तु बना दिया है/ उनके नाम पर अरबों का व्यापार हो रहा है/ सचिन को क्रिकेट का भगवान् बनाये जाने के नेपथ्य में बाज़ार के धुरंधरों का कमाल है/ इस कमाल में खुद सचिन मस्त हैं तो उनके प्रशंसक भी अंधे/ इन सब का मज़ा लूट रहे हैं व्यापारी / अब आप कहेंगे इसमें गलत क्या ? नहीं गलत कुछ भी नहीं है/ सचिन तेंदुलकर हैं ही इतने बड़े क्रिकेटर कि उनको लेकर देशभर में जबरदस्त  उत्साह है/   ये उत्साह सचिन प्रेमियों का है , बिलकुल निरापद/ किन्तु उन प्रेमियों को ठीक उसी प्रकार ठग लिया जाता है जैसे बड़ी बड़ी कम्पनियां  मध्यम वर्ग को विज्ञापन से ठगती हैं या कन्फ्यूज करती हैं/ भारत इसके लिए हमेशा से ही बड़ा बाज़ार रहा है/ यह इसी का कारण है कि आज सचिन भगवान् के रूप में प्रकट कर दिए गए हैं/ एक तो खुद की महिमा, दूसरे बेहतरीन खेल की महिमा , तीसरे महिमामंडित कर दिया जाना किसी भी व्यक्ति को भगवान् का नाम दिला ही देता है/
कोलकाता में टेस्ट चल रहा है/ कोलकाता से बाहर व्यापार/ सचिन नामक प्रोडक्ट धड़ल्ले से बिक रहा है/ अभी वहाँ का यह आलम है किन्तु मुम्बई का इससे भी दमदार / आख़िरी टेस्ट / होम ग्राउंड पर आख़िरी टेस्ट/ यानी इसका मज़ा ऐतिहासिक / अब चूंकि ऐतिहासिक  है तो ऐतिहासिक मार्केट भी है/ आप सिर्फ टिकटों की कालाबाज़ारी पर मत जाइये/ आप सट्टेबाजी पर भी मत जाइये/ आप यह देखिये कौन कौन सी कम्पनियां सचिन का इस्तमाल कर रही हैं/ सचिन कुछ से अनुबंधित हैं / और जिनसे नहीं है वे भी किसी न किसी बहाने सचिन को ब्रांड के तौर  पर दुकान  पर टाँगे हुए है/  आप यह तो जानते हैं कि सचिन आज अरबों की संपत्ति के मालिक हैं / आप अब यह यकीन भी  रख सकते हैं कि इस अरबों की संपत्ति के मालिक के सहारे कितनी ही कम्पनियां खरबों  की मालिक हुई/ ये जो देश भर में सचिन को लेकर अलग रंग घुला हुआ है वह क्या है? यही है असली खेल/ असली क्रिकेट इसी को कहते हैं/ अब आप इस रिकार्ड से भी सचिन के ग्राफ को आगे बढ़ा सकते हैं कि वे इस देश के सबसे महंगे और अरबपति खिलाड़ी भी हैं / इस देश के लोग वैसे भी अमीरों से प्रभावित रहे हैं/ उस पर अगर कोइ किसी विशेष खेल में महारथी हो तो सोने पे सुहागा / ९ अरब ८६ करोड़ रुपयों से अधिक की निजी संपत्ति वाला यह एक ऐसा अमीर है जिसने क्रिकेट से ज्यादा बाज़ार से धन कमाया है/ बाज़ार ने सचिन को महानतम बना दिया /  आज सचिन अगर छींकते भी हैं तो उन्हें उसका पैसा मिल सकता है / इस दिए गए पैसों से कोइ दवा कंपनी अपनी दवा को अंतर्राष्ट्रीय हैसियत दिला सकती है/ तो कोइ रुमाल बनाने वाली सड़ी सी कंपनी खड़ी होकर भौकाल मचा सकती है/ यह करिश्मा है सचिन के नाम का/ यह करिश्मा है सचिन को इस तरह प्रोजेक्ट किये जाने का / जो हो पर सचिन खुद भी एक करिश्मा है/ क्रिकेट  में उनके योगदान को सच में भुलाया नहीं जा सकता / सचिन खिलाड़ी के रूप में यकीनन बादशाह है / और बाज़ार के रूप में बना दिए गए बादशाह भी/ यह भी सचिन का एक  सच  है/ 

Tuesday 5 November 2013

मंगलम

देखिये  हमें इस पर नाज होना चाहिए / सिर्फ इसलिए नहीं कि भारत ने मंगल पर अपना निशाना साधा और यान रवाना किया है बल्कि इसलिए भी किफायत  के मामले  में  भारत ने एक मिसाल पेश की है/ आपको बता दें कि भारत ने  "मिशन मंगल" के तहत जो यान छोड़ा वह 450 करोड़ रूपए का है / जबकि अमेरिकी नासा भी दो हफ्ते  बाद ऐसा ही रॉकेट छोड़नेवाला है/ उसके  मिशन का नाम है "मावेन" (The Mars Atmosphere and
Volatile EvolutioN (MAVEN) उसका बजट है साढ़े चार बिलियन डॉलर/ भारतीय हिसाब से यह लगभग 24 हजार करोड़ रूपए होता है/ अब आप समझ सकते हैं कि हमारे लिए ही नहीं बल्कि विश्व के लिए यह अचरज और कान खड़े करने वाला अभियान है/
ऐन दीवाली के बाद 11 महीने के सफर पर निकाला है यह मंगलयान/ यह यान श्री हरिकोटा से लॉन्च किया गया/ इसरो के 44 साल के लंबे इतिहास में पहली बार पृथ्वी के प्रभावक्षेत्र के बाहर कोई यान भेजा गया है/ एक छोटी सी जानकारी और बता दें कि इस  मंगलयान को पिछले महीने 19 अक्टूबर को छोडे़ जाने की योजना थी, लेकिन दक्षिण प्रशांत महासागर क्षेत्र में मौसम खराब होने के कारण यह काम टाल दिया गया था/
वर्ष 1969 में अपनी स्थापना के बाद से अब तक इसरो ने विभिन्न उद्देश्यों के लिए सिर्फ पृथ्वी के आसपास के अभियान और चंद्रमा के लिए एक अभियान को ही अंजाम दिया है। ऐसा पहली बार है जब राष्ट्रीय अंतरिक्ष एजेंसी पृथ्वी के प्रभाव क्षेत्र से बाहर के किसी खगोलीय पिंड का अध्ययन करने के लिए एक अभियान भेजी है।

भारत के मंगल ऑर्बिटर (यान) की सितंबर 2014 तक लाल गृह की कक्षा में पहुंच जाने की संभावना है। वहां यह जीवन का संकेत देने वाली मिथेन गैस की उपस्थिति की संभावनाएं तलाशेगा। इसरो ने दुनिया भर में स्टेशनों का पूरा नेटवर्क बनाया था।, जो यहां से दोपहर 2 बजकर 38 मिनट पर पहले लॉन्च पैड से मंगल ऑर्बिटर मिशन (एमओएम) को लॉन्च किए जाने के बाद इसपर नजर रख रहे हैं।

अन्य पीएसएलवी अभियानों से अलग, पीएसएलवी सी 25 मंगल ऑर्बिटर को पृथ्वी की कक्षा में प्रविष्ट करा़ने में 40 मिनट का अतिरिक्त समय लेगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि लॉन्च के लिए इसका तटानुगमन (लॉन्ग कास्टिंग फेस) का चरण 1700 सेकेंड का समय लेता है और उपग्रह व पृथ्वी के बीच निकटतम दूरी वाले बिंदु का कोण 276.4 डिग्री रखना होता है। वाहन के मार्ग की निगरानी कई निरीक्षण स्टेशनों से की जा रही है, जिनमें यहां अंतरिक्ष केंद्र के अलावा बेंगलूर के पास ब्यालुलू में इंडियन दीप स्टेशन नेटवर्क, भारत के पोर्ट ब्लेयर में डाउन रेंज स्टेशन शामिल हैं। इसके साथ ही इंडोनेशिया के बियाक और ब्रुनेई से भी इसपर नजर रखी जा रही है।

इसके अलावा शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के एससीआई नालंदा और एससीआई यमुना भी दक्षिणी प्रशांत महासागर में तैनात रहकर इस प्रक्षेपक द्वारा पृथ्वी की कक्षा में मंगल ऑर्बिटर को छोड़े जाने की निगरानी की। इन समुद्री टर्मिनलों पर 4.6 मीटर लंबा एक एंटीना और 1.8 मीटर लंबा एंटीना लगा है। प्रक्षेपक वाहन द्वारा कक्षा में छोड़े जाने पर अंतरिक्ष यान के मार्ग का निरीक्षण अमेरिका (गोल्डस्टोन), स्पेन (मैड्रिड) और ऑस्ट्रेलिया (कैनबरा) स्थित नासा की जेल प्रपल्शन लेबोरेट्री द्वारा किया जाएगा।

मंगल ऑर्बिटर पर लाल ग्रह का अध्ययन करने के लिए पांच वैज्ञानिक उपकरण लगे हैं। इनमें लायमन एल्फा फोटोमीटर, मिथेन सेंसर फॉर मार्स, मार्स एग्जोफेरिक न्यूट्रल कम्पोजिशन एनालाइजर (एमईएनसीए), मार्स कलर कैमरा और थर्मल इन्फ्रारेड इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर शामिल हैं। एल्फा फोटोमीटर और मिथेन सेंसर वायुमंडलीय अध्ययन में मदद करेंगे। एमईएनसीए कणीय पर्यावरण का अध्ययन करेगा। कैमरा और स्पेटक्ट्रोमीटर मंगल की सतह की तस्वीरों का अध्ययन करने में मदद करेंगे।

मंगल पर यंत्रों को भेजने से जुड़े 33 सुझाव मिलने के बाद इसरो ने इनमें से सिर्फ 9 का चयन किया। प्रोफेसर यू आर राव की अध्यक्षता वाली स्पेस विज्ञान की परामर्श समिति ने इनमें से सिर्फ 5 का चयन किया क्योंकि यही पांच यान उड़ान पर जाने के लिए पूरी तरह विकसित थे। 852 किलो ईंधन और 15 किलो के वैज्ञानिक यंत्रों वाले 1,337 किलो के इस मंगल ऑर्बिटर के 14 सितंबर 2014 तक मंगल की कक्षा में पहुंचने की संभावना है। यदि 450 करोड़ की लागत वाला यह मंगल अभियान सफल रहता है तो मंगल पर अभियान भेजने वाली इसरो विश्व की चौथी अंतरिक्ष स्पेस एजेंसी होगी। नासा के अनुसार, हालांकि मंगल के लिए कई देशों द्वारा कुल 51 अभियान भेजे जा चुके हैं लेकिन इनमें से सिर्फ 21 को ही सफल माना गया है।

मंगल ग्रह
मंगल सौरमंडल में सूर्य से चौथा ग्रह है। पृथ्वी से इसकी आभा रक्तिम दिखती है, जिस वजह से इसे "लाल ग्रह" के नाम से भी जाना जाता है। सौरमंडल के ग्रह दो तरह के होते हैं - "स्थलीय ग्रह" जिनमें ज़मीन होती है और "गैसीय ग्रह" जिनमें अधिकतर गैस ही गैस है।
गुरुत्व: 3.711 m/s²
त्रिज्या: 3,390 km
द्रव्यमान: 639E21 kg (0.107 धरती का द्रव्यमान)
सतह का क्षेत्रफल: 144,798,500 km²
दिन की लंबाई: 1 दि 0 घं 40 मि
चंद्रमा: फ़ोबस, डिमोज़

यान के रहस्य यन्त्र  
  • मीथेन सेंसर :  गैस मापने के लिए
  • कम्पोजिट एनालिसिस : जिंदगी के लिए वातावरण की तलाश।
  • फोटोमीटर :  हाइड्रोजन, अन्य वस्तुओं की उपलब्धता का अध्ययन
  • कलर कैमरा : मंगल की धरातल की फोटो भेजेगा
  • इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर : स्थलाकृति की मैपिंग होगी
  • 56 घंटे 30 मिनट का है काउंट डाउन
  • पीएसएलवी सी-25
  • यान का भार : 1350 किलो
  • लंबाई 44.5 मीटर
  • लागत : 110 करोड़
  • 24 सितंबर, 2014 तक मंगल की कक्षा में पहुंचने की उम्मीद
  • धाक : रूस, अमेरिका, जापान और चीन के बाद मंगलयान भेजने वाला भारत पांचवां देश होगा
  • स्थिति : यह सौर मंडल का दूसरा छोटा ग्रह है, जो बुध से बड़ा है। पृथ्वी के व्यास का लगभग आधा है। मंगल पर एक साल पृथ्वी के 687 दिनों के बराबर है।
  • मिशन की लागत :  450 करोड़ रुपये

Thursday 31 October 2013

नए अखबार नई वेश्या की तरह हैं

''अखबार , खासतौर पर हिंदी अखबार अपने आप दयनीय अवस्था में नहीं पहुंचे हैं बल्कि मूढ़ता के चलते इसका बंटाढार किया गया है/ इसमें सिर्फ अखबार मालिकों का दोष नहीं है , वे तो कुछ जानते-समझते भी नहीं सिवा अपने  उद्योग के, बल्कि सम्पादकों का उनके हाथों बिक जाने का सबसे बड़ा दोष है/ वे समझबूझ खो चुके है , जितनी शेष है वह खुद के स्तर  और चमकने के लक्ष्य तक ही सीमित है/ दूसरी ओर  जिन्हें हम स्थापित अखबार  समझते हैं उनमें भी अधिक रचनात्मक लेखन नहीं हो रहा/ चूंकि वे स्थापित है और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं/ इसे हिन्दी अखबारों के लिए भले सुखद मान लिया जाए किन्तु विषय गंभीर है/ आखिर क्या कारण है कि अखबार चल नहीं पाते या जो चलते हैं उनसे  संतुष्टि नहीं मिलती?''  इस गम्भीर विषय पर हमने कई गणमान्य और सुधी जनों को एकत्र किया तथा उनसे जानने समझने का प्रयत्न किया कि  अखबारो  की ह्त्या के पीछे कौन है ? इसकी जांच करते हुए कुछ  वरिष्ठ पत्रकार , सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों के अधिकारी , अध्यापन कार्य में लगे प्रोफेसर्स -लेक्चरर तथा संगीत की दुनिया से जुड़े एक गायक ने मदद की और चर्चा में हिस्सा बनकर असल कारणों को तलाशा /'' आइये पढ़ें और समझे अखबारों के इस गिरते स्तर को तथा इसे बेहतर बनाने के लिए आगे बढ़ें -



अभिमन्यु शितोले -
(मेट्रो संपादक - नवभारत टाइम्स, मुम्बई )
आपने लिखा, “हिन्दी के अखबारों की दशा दयनीय है/ जिन्हें हम स्थापित अखबार समझते हैं उनमें भी अधिक रचनात्मक लेखन नहीं हो रहा/ चूंकि वे स्थापित हैं और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं/ इसे हिन्दी अखबारों के लिए भले सुखद मान लिया जाए किन्तु विषय गंभीर है/ आखिर क्या कारण है कि अखबार चल नहीं पाते या जो चलते हैं उनसे संतुष्टि नहीं मिलती?”
विषय बहुत वृहद है पर बिना किसी भूमिका के संक्षेप में अपनी बात रख रहा हूं...
समाचार पत्र चाहे हिंदी का हो या किसी भी अन्य भाषा का, उसके विकास की एक प्रक्रिया होती है। बिल्कुल उसी तरह जैसे इंसान का बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो उसे पनपने के लिए पहले लाड़-प्यार, शिक्षा-दिक्षा की जरूरत होती है इस दौरान उस पर जैसे संस्कार होते हैं वह उन्हीं संस्कारों के अनुरूप कार्य करता है। ठीक इसी तरह समाचार पत्रों की विकास प्रक्रिया है। शुरूआत में किसी भी समाचार पत्र को अपने पैर जमाने के लिए मालिकों के लाड़-प्यार की जरूरत होती है। साथ ही साथ जो लोग समाचार पत्र के लिए काम कर रहे हैं (सिर्फ संपादकीय विभाग के लोग ही नहीं अपितु समाचार पत्र के समूचे कर्मचारी) उन्हें प्रशिक्षित करने की आवश्यक्ता होती है ताकि वे समाचार पत्र को अच्छे संस्कार दे सकें, अर्थात उसकी दिशा और दशा, आचार और व्यवहार को निर्देशित कर सके। इस प्रक्रिया से जब कोई समाचार पत्र तैयार होता है तो वह स्थापित भी होता है और टिके भी रहता है। एक और महत्वपूर्ण तथ्य को मैं रेखांकित करना चाहता हूं “किसी भी समाचार पत्र की लॉन्चिंग से पहले की जाने वाली नियुक्तियां समाचार पत्र के भाग्य लिखती है” पर हो यह रहा है कि किसी भी नए समाचार पत्र को संस्कारित संतान की तरह नहीं बल्कि कोठे पर आई नई वेश्या की तरह पहले दिन से ही ग्राहकों को खुश करने की अनिवार्य और अंतिम शर्त के साथ ल़ॉन्च किया जा रहा है  और इसके लिए नियुक्तियों का पैमाना भी वैसा ही है। जैसे परिणाम सामने आ रहे हैं वे किसी से छिपे नहीं है।
भाषाई, कस्बाई, वैचारिक और व्यावसायिक हर तरह के समाचार पत्र में काम करने के ढाई दशक बाद में इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि नए से शुरू होने वाले हर समाचार पत्र के प्रबंधन को सबसे पहले इस बात की व्यवस्था करनी होगी कि जिन भी पत्रकारों को वो अपने समाचार पत्र से जोड़ रहे हैं उनके प्रशिक्षण को अनिवार्य बनाया जाए। यह प्रशिक्षण कम से कम 6 महीने का हो, ताकि टीम को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जा सके की उसे क्या करना है, किस तरह करना है, उसके पास साधन क्या है, उसका साध्य क्या है। तब जाकर एक सधी हुई दिशा और दशा का समाचार पत्र आकार ले पाएगा। तब जो समाचार पत्र बनेगा उसमें रचनात्मक लेखन भी होगा और पाठक को संतुष्टि भी मिलेगी।
आपने कहा कि स्थापित अखबार चूंकि स्थापित हैं और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं... सच है जब विकल्प नहीं होगा तो बदलाव भी नहीं होगा, लेकिन स्थापित होना और टिके रहने में सिर्फ विकल्पहिनता ही नहीं एक मात्र वजह नहीं है, इसमें स्थापित होने और टिके रहने की काबिलियत की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्ना बाजार में उपभोक्ता के लिए क्या ‘ABC ‘  और क्या ‘XYZ’। पिछले ढाई दशक में मैंने पाठकों को कई बार 99 रुपये की स्कीम के लिए अपनी ‘लायलटी’ बदलते देखा है। बहरहाल मैं पूरी शिद्दत के साथ कहना चाहता हूं कि किसी भी समाचार पत्र के लिए स्थापित होना मुश्किल जरूर हो सकता है नामुमकिन कतई नहीं, लेकिन अनिवार्यता इस बात की है कि जो लोग समाचार पत्र के प्रकाशन के क्षेत्र में आ रहे हैं उन्हें धंधे और बाजार के फर्क को पहचानना होगा। बाजार की भाषा में कहूं तो समाचार पत्र एक प्रॉडक्ट जरूर है लेकिन शैंपू और डायपर की तरह नहीं है जो समय उम्र के हिसाब से बदलते जाते हैं। समाचार पत्र प्रॉडक्ट है इक्विटी निवेश की तरह का, जिसमें लोग इसलिए निवेश करते हैं ताकि खुद को आने वाले कल के लिए अपडेट रख सकें। इसलिए याद रखें जो समाचार पत्र अपने पाठकों को उसके निवेश का अच्छा रिटर्न देंगे वे ही टिक सकेंगे। खासकर तब जब मोबाइल मीडिया की बहुत बड़ी चुनौती सामने है। जहां पल-पल पर अपडेट है, बदलाव है और सोशल कनेक्ट है। जो अखबार स्थापित होना चाहता है, घरों में टिके रहना चाहता है उसे पंरपरागत ढर्रे को छोड़कर नए मार्ग खोजने होगें...। इंवेट, न्यूज और स्टोरी के बीच के महीन अतंर को पहचानना होगा। टीवी पर दिन भर च्युंगम की तरह चबाकर थूंकी गईं खबरों का गुब्बारा फुलाने से काम नहीं चलेगा, समाज की अनछुई खबरों पर फोकस करना होगा। सनसनी कभी-कभार ठीक है पर ज्यादातर स्थानीय स्तर पर समाज के बड़े वर्ग को आंदोलित करने वाली खबरों को महत्व देना होगा। यह बड़ा श्रम साध्य कार्य है और बिना मानव संसाधनों को इसके लिए प्रशिक्षित किए यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से भाषाई समाचार पत्रों में अब पत्रकारों को प्रशिक्षित करने की परिपाटी का अंत हो चुका है। और बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि कुकुरमुत्ते की तरह उग आए – मीडिया इंस्टिट्यूट्स और बीएमएम कोर्सेस आजीवन बेरोजगारी और नाकारेपन के सर्टिफिकेट बन कर रह गए हैं। शिक्षा के नाम पर टाइम पास और अभिभावकों के पैसे की बर्बादी के अलावा ये नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हैं। इसलिए अगर कोई प्रकाशक अच्छा सामाचर पत्र निकालना चाहता है तो उसे खुद ही अपनी टीम को प्रशिक्षित कराने का बीड़ा भी उठाना होगा, तभी उसके समाचार पत्र के प्रकाशन में किए गए उसका निवेश लाभ अर्जित कर सकेगा।

अजय भट्टाचार्य 
(सम्पादक 'भजन-कीर्तन') 
सबसे  बड़ी दिक्कत यह है कि अब खबरियों को भी पत्रकार बनाने का सिलसिला चल निकला है। नये अख़बार बिना किसी तैयारी के निकल रहे हैं। जोड़ तोड़ के महारथी आज अख़बारों में, चैनलों पर व अन्य मीडिया माध्यमो पर आसीन हैं। नयी पीढ़ी मेहनत नहीं करना चाहती। सिंडिकेट बना हुआ है। बावा किस किस पर क्या क्या लिखोगे? जिनको अपना नाम लिखना नहीं आता वे पत्रकार संगठन बना कर दलाली में लगे हैं। आज स्थिति यह है कि किसी बड़े अख़बार से जुड़ा टुच्चा सा अंशकालीन अपने को धर्मवीर भारती से कम नही समझता। जाने दीजिये  बात निकलेगी तो कई नंगी सच्चाइयां हमारे पेशे की  विद्रूपता को उद्घाटित कर देंगी।


डॉ. अजीत
(लेक्चरर ' गुरुकुल कांगरी विश्विद्यालय , हरिद्वार ')
हिन्दी समाचार पत्रों के साथ कई नई प्रवृत्तियां जुड गई है जो मानक पत्रकारिता की सीमाओं का अतिक्रमण करती है मसलन खबरों का अत्याधिक स्थानीयकरण, विज्ञापन के स्पेस का बढ जाना,वैचारिकी पक्ष को कोरम की तरह प्रकाशित करना ऐसे मे एक जागरुक पाठक निश्चित रुप हिन्दी पट्टी के अखबारों को देखकर निराश होता है। पहले अखबार एक सन्दर्भ के रुप मे प्रयोग किए जाते है लेकिन लाईव और खबरों की आपाधापी में अब अखबार की विश्ववसनीयता पर सवाल खडे कर दिए है। अखबार मे घटती वैचारिकी और समाचार प्रकाशित करने की अंध दौड नें हिन्दी अखबार की गरिमा को कम किया है। अखबार हमे तभी संतुष्टि दे पाते है जब वो हमे खबरों के लिहाज़ से अपडेट रखे और दिमाग की खुराक के लिए निष्पक्ष वैचारिकी को भी रुचिपूर्वक प्रकाशित करें।

इद्रजीत अकलेचा 
(डेवलपमेंट अधिकारी , 'न्यू इंडिया इंश्युरेंस कम्पनी' खरगोन म.प्र. )

मुझे  यह भी लगता है कि जैसे मै दैनिक भास्कर और नईदुनिया घर पर आते है तो वह पढ़ता ही हू,तो जो इन अखबारो ने स्थानीय खबरो को स्थान देने के लिये 3-4 पेज दिये है साधरणतयाः उससे लोगो का झुकाव उन समाचारो को पढ़ने मे हुवा है,जिससे वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरो के लिये समय नही निकाल पाते है,और इससे कही ना कही अखबारो मे छपने वाली खबरो की गुणवत्ता  पर फरक तो पड़ा है,क्योकि अखबार भी बाजार वाद की चपेट मे है और छपता वही है जो बिकता है.

विजय साप्पत्ती 
(कवि, हैदराबाद, आंध्र प्रदेश )   
मेरे विचार से धन की लालसा , पद की लालसा और खुद के स्वाभिमान की हत्या , और ज़िन्दगी की rat race  में आगे निकलने की स्पर्धा इन्ही सब बातो ने अख़बार जैसे अच्छे माध्यम को बिकाऊ बनाकर रख दिया है . . मुझे याद आता है पंजाब केसरी की बात , क्या दम था अखबार के मालिको में . ऐसे अखबार आजकल कहाँ  है.

आशीष दुबे 
(गायक-अभिनेता  , आजमगढ़ उ.प्र.)  
मैने इतिहास में  पढ़ा है कि रजवाड़े चाटुकार इतिहासकार पैसे दे कर पालते थे, जो एक पक्षीय  इतिहास लेखन करते थे...वे प्रजा की समस्याओ से अनभिज्ञ होते थे...आज के दौर में मीडिया  भी वही कर रही है जो दरबारी इतिहासकार करते थे....पैसा,तोहफा और सरकारी सम्मान की लालच मे जो सरकार चाहती है उसे लिखते और दिखाते है...ये लोकतंत्र व्यवसायीकरण है...

(....शेष अगली पोस्ट में ).

Monday 28 October 2013

रंगीला राजेन्द्र

अपनी आदतों और अपने विवादों के बावजूद उनका इतना अधिक जी लेना भी तो करिश्मा ही है

कितने आते  और चले जाते हैं/ कौन किसे याद रखता है/ याद रह जाते हैं उसके कर्म/ अच्छे या बुरे/ और यह  भी समय कि जिल्द में दबकर पीछे और पीछे , इतने कि भुला दिए जाते हैं/ ऐसा होना भी चाहिए/ ऐसा न हो तो नए के लिए मुसीबत हो सकती है/ प्रकृति ऐसा नहीं करने देती , इसलिए जाने वाले का शोक न हो / आने वाला का स्वागत होना चाहिए/
साहित्य में राजेन्द्र यादव का जो कुछ भी योगदान है वो साहित्य की अपनी धरोहर है/ आदमी जब लिख लेता है तो उसकी रचना धरोहर बन जाती  है / यानी लेखक तो लिख कर जा चुका/ अब वो नया ही लिख सकता है / इसलिए राजेन्द्र यादव का अवसान मेरी नज़रों में किसी प्रकार की क्षति नहीं है/ अपनी आदतों और अपने विवादों के बावजूद उनका इतना अधिक जी लेना भी तो करिश्मा ही है/ फिर वे कोइ तुलसीदास नहीं है कि अमर हो जाएँ/ अमरता के लिए आचरण भी जरूरी होते हैं/ आदमी लिखता कुछ और होता कुछ है/ राजेन्द्र यादव ठीक ऐसे ही थे/ मुझे इस आदमी में उसके लेखन के अतिरिक्त कभी कोइ बात ढंग की नहीं लगी/ उसके बारे में जब जब पढ़ा , जब जब सुना  ,बुरा पक्ष ज्यादा रहा जिसे ये आदमी अपना व्यक्तित्व मानता रहा/ ठीक है आदमी को अपनी तरह जीने का हक़ है / अगर समय रहते राजेन्द्र यादव अपनी कारगुजारियों के सन्दर्भ में सच कह देते तो ज्यादा बेहतर होता / क्योंकि जो भी सच था  राजेन्द्र यादव अपने संग ले गए/
इस वक्त उनके जाने से 'हंस' को काफी बड़ा झटका लगा है / या यूं भी कह सकते हैं, अब वो मुक्त हुआ है/ मुक्त इस मायने में कि 'हंस' अब किसी दूसरे को तलाशेगा और बैठायेगा/ वो राजेन्द्र यादव नहीं होगा / सम्भव है 'हंस' के दफ्तर में अब लड़कियों का जोरशोर न रहे/ लडकियां और राजेन्द्र यादव दोनों हमेशा मिस्ट्री  बने रहे/ इस मिस्ट्री युग का अंत हुआ समझो/ यादव जी सचमुच अपने आप में एक रहस्य थे/ रहस्य ही रह कर निकल लिए/
'सारा आकाश' से प्रसिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद राजेन्द्र यादव रुके नहीं/ अपनी रंगमिजाजी और मंचीय उपस्थिति से उन्होंने खुद को लगभग हमेशा चर्चा में रखा/ उम्र के तथा अपने लेखन के भी अंतिम पढ़ाव पर आने के बाद भी उनके बारे में मुझे कोइ यह कहते नहीं मिला कि ये आदमी गजब की आदमीयत वाला है/
मैं राजेंद्र  यादव को करीबी समझता रहा / राजेन्द्र यादव मेरे करीब भले न रहे हों/  किन्तु उनकी जीवनी, उनका लेखन और मेरा साहित्य तथा पत्रकारिता में सक्रीय रहना राजेन्द्र यादब नामक शख्स के करीब मुझे रखता रहा/ उनके सन्दर्भ में सुनना- उनका लिखा पढ़ना और उनका मंच से बोलना इत्यादि मेरे लिए उनकी एक छवि का निर्माण करता  रहा था/ फिर कुछ महिलाओं द्वारा उनके बारे में कहते रहना , दबी जुबान का गॉसिप भी तो इस छवि में इजाफा करता रहा/ कितना सच कितना झूठ पता नहीं/ किन्तु आदमी जब भी सार्वजनिक हो जाता है तो उसे खुद को उन संदेहों से बाहर निकालने का प्रयत्न करना चाहिए जो गहराते रहते हैं/ शायद राजेन्द्र यादव को इसमें भी आनंद प्राप्त होता था इसलिए वे संदेहों को ही गढ़ते रहे / अंत तक गढ़ते रहे/ उस वक्त भी जब अंतिम मामला पुलिस तक पहुँच गया/ ख़ैर/ आदमी वाकई रंगीला था/ उसने जैसे जीना चाहा शायद जिया/ इन सबको नज़र अंदाज़  करने के बावजूद कि पारिवारिक जीवन में वो ज्यादातर  अकेले ही दिखा/ पर एक साहित्यकार   के रूप में राजेन्द्र यादव ने अच्छी पैठ जमा कर रखी जो अंत तक कायम रही/ यह सच है कि  उनके जाने और उनके पीछे छोड़ जाने वाले कई संस्मरणों को लोग अपने अपने तरीके से याद रखेंगे / वे एक शख्सियत तो थे ही / और यही वजह भी है कि उनके बारे में लिखा जाता रहा/ लिखा जा रहा है/
आप यह बिलकुल कह सकते हैं के राजेन्द्र यादव रंगीले रहे / रंगीले होना यानी रंग से सराबोर होना होता है/ राजेन्द्र यादव ने साहित्यिक जीवन में कई कई रंग बिखेरे हैं/ अब वो इस दुनिया में नहीं हैं किन्तु उनके द्वारा बिखेरे गए रंग मौजूद हैं, मौजूद रहेंगे / 

मोदी नहीं मुसलमान निशाने पर हैं

यह इतिहास रहा है कि जब जब भारत के मुसलमान बदलाव चाहने लगे, वे हिंदुओं के संग रहना चाहने लगे तब तब उन्हें तोड़ा गया है/ और यह जितना देश के भीतर हुआ, उससे कहीं ज्यादा देश से बाहर योजनाएं बनीं। पटना बम विस्फोट ने एक बार फिर जाहिर करना   शुरू कर दिया है कि मोदी नहीं बल्कि मोदी के सहारे मुसलमान निशाने पर हैं/ आप देखें तो यही पाएंगे कि पाकिस्तान में भारत के अंदर आतंक फैलाने की साजिश होती है , उन जगहों पर ज्यादा जहां हिन्दू बहुल हो या भीड़ भाड़ / उन लोगों पर ज्यादा जिन्हें हिन्दू वादी समझा जाता है/ क्यों? यह कोइ हिंदूवादी को मारकर जीत का जश्न नहीं है बल्कि भारतीय मुसलमानों के खिलाफ आग भड़क उठे, इस चाहत का जश्न होता है/ 
गांधी मैदान विस्फोट और कंधे पर ले जाता एक  घायल को पुलिसवाला 
भारतीय मुसलमान निस्संदेह भारतीय हैं / ये आतंकवादी बेहतर जानते हैं/ यही वजह है कि वे भारत में अपने गुर्गे  भेज कर इनकी मानसिकता में जहर घोलते हैं और साजिश को अंजाम देते हैं/ होता क्या है? कुछ मुसलमान पकड़ा जाते हैं/ इनके तार पाकिस्तान से निकलते हैं/ भारतीय जनमानस में एक सीधा संकेत जाता है मुसलमान विरोधी है/ हिन्दू भड़कते हैं/ मुसलमान भड़कते हैं/ दंगे होते हैं/ हमारी जानें जाती है/ हम   ही मरते हैं/ हमारी ही हानि होती है /  दूर बैठे आतंकवादी और उनके आकाओं की साजिश सफल हो जाती है/ इस बात को भारतीय मुसलमान बहुत अच्छी तरह से जान गया है/ होता यह है कि हमारे यहाँ राजनीति इनकी सोच और इनकी मनोदशा को वोटबैंक की खातिर कुंद बनाये रखती है / अब जब मोदी ने एक नई दिशा देने की कोशिश की है और  मोदी में भारतीय मुस्लमान भी अपना सुरक्षित भविष्य देख रहे हैं तो यह बाहर बैठे आतंकवादियों के लिए आँख में किरकिरी है/ वे चाहते हैं कि ऐसा कुछ हो न सके, वे मेल नहीं चाहते/ 
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि भारतीय मुसलमान भारतीय मानसिकता रखता है, उसे हिंदुत्व से गुरेज नहीं है/   हिंदुत्व इस देश का मूल है/ और यह कोइ जातिगत तत्व नहीं है बल्कि मुख्य  धारा है/ सुप्रीम कोर्ट तक ने इसकी व्याख्या की है और यह साबित हो चुका है कि भारत में रहने वाला प्रत्येक शख्स हिंदुत्व की छत्रछाया में है/ वह इसकी रक्षा पीढ़ियों से करता आया है/ आज भी कर रहा है और भविष्य में भी करेगा/ किन्तु ये जो माहौल बिगाड़ने का काम है इसके गर्भ में जाकर हम  सबको सोचना होगा / अन्यथा होगा वही जो अब तक होता आया है, न हम  दिशा पाएंगे न दशा बेहतर होगी/  इस अज्ञान से, इस अन्धकार से बाहर निकल रहा है जनमानस/ वो किसी प्रकार के दंगे नहीं चाहता / बैरभाव नहीं चाहता/ यही सबसे बड़ी ताकत है भारत की / और इसी ताकत को तोड़ने का सिलसिला चल रहा है/ मुसलमानों को ज्यादा विचार करने की आवश्यकता इसलिए है कि यह वार उन पर है/ वो यह देख चुप न बैठे कि जो मारा जा रहा है वह हिन्दू है/ बल्कि उसके पीछे आतंकवादियों की असली मंशा पहचाननी होगी/ वो पूरी मुसलमान कौम को बदनाम करना चाहते हैं/ बदलाव के इस वक्त को पुरजोर तरीके से अपना कर भाईचारे की मिसाल कायम करने की जरुरत है/ हमें देखना होगा, समझना होगा कि हम  कहीं किसी के हाथों की कठपुतली तो नहीं बन रहे/ मुझे हमेशा से ऐसा लगता आया है कि कांग्रेस या उसके समर्थकों ने  जोड़ने के प्रति कम काम किये हैं/ तो देख लेते हैं बदलाव, क्या बिगड़ता है / सम्भव है बदलाव में सुखद वातावरण ही बन जाए/     

Sunday 27 October 2013

राजनीति में आग है पटना के धमाके

धमाकों में मरता तो सामान्य आदमी ही है  
नरेन्द्र मोदी की रैली के पहले पटना  में हुए धमाके और मुख्यमंत्री का पटना से बाहर मुंगेर की ओर निकल जाना , फिर कांग्रेसी प्रवक्ता दिग्विजय सिंह का ट्विट  कि   नितीश को इसकी जांच करानी चाहिए , सब कुछ राजनीति लगती है/ राजनीति में आम जनता को ही मरना होता है इसलिए इस धमाके में भी जो हानि हुई है वो जनता की ही हुई / अब बयान -प्रति बयान हो रहे हैं/ दिल्ली की राहुल रैली की और ध्यान खींचने का यह एक प्रयास माना जा रहा है तो यह भी माना जा रहा है कि राहुल रैली की जगह सुर्खियाँ पटना की ओर मुड  जाए/ भाजपा नितीश प्रशासन पर छींटाकशी कर रही है तो जदयू इसे अपनी तरह से भुनाने की कोशिश/ यहाँ इसके अलावा दूसरा कुछ होता नहीं दिखता / राजनीति और राजनीति में शिकार सामान्य आदमी / इसी आदमी के कन्धों पर बन्दूक होती है, इसी आदमी को मारा जाता है, इसी आदमी को अपने प्रचार-प्रसार के लिए दौडाया जाता है/ मरता-जख्मी होता यही आदमी  है/  
धमाके के बाद के हालात मोदी की रैली के होने इसके सम्पन्न होने के बाद पता चलेंगे किन्तु यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहार में राजनीति का खेल कितना भयानक हो सकता है/ लालू अन्दर हैं अन्यथा यहाँ का दृश्य दूसरा होता / बावजूद उनकी पार्टी निश्चित रूप से नितीश और भाजपा को घेरेगी / आवाम की शान्ति भंग जैसे आरोप लगेंगे/ सब कुछ होगा /  मगर सामान्य आदमी के जख्मों का कोइ उपचार नहीं होगा /  उधर कांग्रेस को मुद्दा मिल गया है, राहुल इस धमाके को अपने भाषण का मुद्दा बना लेंगे/ इसकी तैयारी भी होती दिखती है दिग्गी के ट्विट  से / बहरहाल , धमाके कहीं भी हो, यह आदमीयत के लिए हमेशा बुरा ही है /

Saturday 26 October 2013

कैसे ज़िंदा रह लेते हैं ये कांग्रेसी ?

भय है , यदि मत्था न टेका तो जड़ से उखाड़ फेंके जायेंगे 

ताज्जुब है, कांग्रेस में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो  राहुल गांधी की बकवास को रोकने की बहादुरी दिखा सके/  इन निर्वीर्य नेताओं पर लानत है/ इन नेताओं में से अगर एक भी नेता अनाप शनाप बकता तो उसे कबका कांग्रेस से बाहर निकाल दिया जाता / वाह  री स्वामी भक्ति/ हद हो गयी है, अपने स्वाभिमान, अपने जमीर सबकुछ को तो न्योच्छावर कर दिया गया है और खुद को बुद्धिमान, अक्लमंद बताये फिरते हैं/ कैसे ज़िंदा रह लेते हैं ये कांग्रेसी ?
नरेन्द्र मोदी का तूफ़ान है/ इस तूफ़ान को रोकने ही राहुल गांधी ने खुद कमान संभाली/ यह अच्छा भी था/ मगर कमान संभालने का मतलब जबान संभालना भी होता है/ और जबान तब ही संभल सकती है जब दिमाग में जानकारियाँ हो , देश हित हो , सामान्य ज्ञान हो/ इसके अलावा जो सलाहकार हैं वे कम से कम चाटुकार न हो/ पर इस गांधी परिवार को खुशामदी लोगों के अलावा दूसरा कुछ पसंद भी तो नहीं है/ और ये कांग्रेसी बखूबी जानते हैं कि यदि मत्था न टेका तो जड़ से उखाड़ फेंके जायेंगे / और इनकी रोजी रोटी भी तो यही है / लिहाजा जो आज्ञा हुजूर की भांति सबके सब खड़े दीखते हैं/
मुझे अब तक लगता था कि हो न हो ऐन  चुनाव के मौके पर कांग्रेस हमेशा की तरह बाजी मार ले जायेगी / मगर अब नहीं लगता/ अब सचमुच नहीं लगता / अपने कुछ मित्रों से, जो पक्के कांग्रेसी रहे, जब बातें होती है तो उनका कहना है राईट टू  रिजेक्ट   ज्यादा बेहतर है / वे अगर भाजपा को विकल्प नहीं मानते तो कांग्रेस को ही वोट देंगे ऐसा नहीं है/ अब राईट टू रिजेक्ट का आप्शन ऐसे लोगों के लिए है/
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की यह गत इस वजह से बनी कि बीजेपी को लोग पसंद करने लगे/ उसके अपने जो वोट थे, वे तो हैं ही , मगर राहुल-सोनिया के आकर्षक विहीन रवैये के कारण वे सोचने पर मजबूर हो गए , दूसरी ओर   कमजोर सत्ता संचालन और महंगाई से कुचल चुकने की वजह ने लोगों को  लगभग तोड़ कर रख दिया है, इस पर भी सत्ता संभाले किसी भी नेता के चहरे  तड़प रही जनता पर उदास होते नहीं दीखते/ उन्हें जब भी देखा जाता है वे सोनिया और राहुल के गुणगान में लगे दीखते हैं/ राहुल गलत-सलत बोल रहे हैं तो ये नेता उनका बचाव करते कुतर्क कर रहे हैं/ क्या  जनता इतनी बेवकूफ हैं कि इनके बेवकूफ होने को भी सहे, और गांधी परिवार की ड्यूटी बजाते इन नेताओं पर गर्व करे /  इन नेताओं की रोजी रोटी या घर परिवार गांधी भक्ति से चल सकता है किन्तु आम जनता को तो सड़क पर निकलना  होता है/ उसे रोज अपना पेट काट कर बच्चे पालना होता है/ क्या यह इस विकट  दौर में आन पडी मजबूरी नहीं है, जो विकल्प ढूँढने  की ओर  स्वतः ही मोड़ती है?

Thursday 24 October 2013

अरे, कन्हैया  किसको कहेगा तू मैया ?


गैर  क़ानूनी तरीके  से बच्चा गोद लेने  की तादाद बड़ी 


घटनाओं पर पैनी नज़र रखना और उसे जन जन के सामने लाकर समाधान का प्रयास करना कोइ आसान कार्य नहीं होता  / इसके लिए रिपोर्टर्स   को न केवल तेज तर्रार होना होता है बल्कि  पूरी समझ बूझ के साथ स्थितियों का सामना भी करना होता है / ऐसी ही एक तेज तर्रार और संजीदा रिपोर्टर हैं प्राची दीक्षित, जिन्होंने ख़ास तौर  पर 'खबर गल्ली' के लिए अपनी एक ख़ास रिपोर्ट प्रेषित  की है / "


मुंबई स्थित इंडियन एसोसिएशन फॉर प्रमोशन ऑफ़ एडॉप्शन अण्ड चाइल्ड वेलफेयर की रिपोर्ट के अनुसार ,गैर  कानूनी ढंग से बच्चा गोद लेनें वालों की तादाद  बढ़ती ही जा रही है.कुछ  विवाहित जोड़े , बच्चा गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए या फिर मानव व्यापार के लिए बच्चा गोद लेते हैं.इसके चलते आश्रमों और एडॉप्शन संस्था को , बच्चा ना होने की किल्लत  का सामना करना पड़ रहा हैं.
इंडियन एसोसिएशन फॉर प्रमोशन ऑफ़ एडॉप्शन अण्ड चाइल्ड वेलफेयर की प्रभारी  सविता नागपूरकर का कहना है कि  हमारे अब तक के अनुभव से हमें यह ज्ञात हुआ है, अधिकतर कपल्स कानूनी झंझटों से निजात  पाने के लिए इस तरह के कदम उठातें हैं. जिसमें डॉक्टर और एजेंट्स उनका साथ देते है.हमारे पास एडॉप्शन की डिमांड ज्यादा है और बच्चें कम। जिसकी एक मात्र वजह हैं गैरकानूनी तरीका इस्तेमाल करना। देश भर में हर एक संस्था को इस तरह की गंभीर समस्यां का सामना करना पड़ रहा। 
आए.ए पी.ए (मुंबई ) ने बच्चों को कूड़ेदान में ना फेकने,बाल मजदूरी ,अशिक्षा जैसे अनगिनत अपराधों अथवा अत्याचारों से बचानें के लिए ट्रेनों और रेलवे स्टेशन पर बचपन बचाओं अभियान भी किया। 

कहाँ  से आते हैं ये बच्चें ?

आखिर अनाथ आश्रम में बच्चें कहाँ से आते है? कौन हैं इनके माता पिता ? जन्म के बाद क्यूँ इन्हें कचरा पेटी  या रास्तों पर छोड़ दिया जाता हैं ? लड़की होने का अभिशाप ,गरीबी, अशिक्षा ,शायद इसकी वजहों में से एक हो सकती है. लेकिन इसकी असली वजह लोगो की ऐसी  मानसिकता है जो  बच्चा पैदा करना तो जानती है मगर उसकी जिमेदारी से दूर भागने में ही अपनी भलाई समझती है/ ऐसे अनगिनत माता -पिता है जो अपनी जिम्मेदारियों  से पल्ला झाड़ते  हुए ,अपनी कोख से जन्मे को कूड़ेदान या फिर किसी अनजान जगह पर छोड़ देते है. इसके बाद या तो वो अनाथ आश्रम पंहुचा दिए जाते हैं या फिर किसी गलत संगठन के पास पहुँच जाते हैं.हमारा समाज भी इन ठुकराए हुए बच्चों के प्रति कोई खास सवंदेंशील भूमिका नहीं निभाता। उनके लिए एक मात्र जगह रह जाती है आश्रम और पहचान के तौर पर अनाथ होने का घाव। 

ममता बनी मुसीबत 

बच्चा गोद लेना मतलब अंधकार में घुट रहें बचपन को जिंदगी देना। बच्चा गोद लेना अभी -भी भारत में सामान्य और आसन  नहीं है.आये दिन अख़बारों और न्यूज़ चैनल में ,अस्पतालों और रेलवे स्टेशन से बच्चा चोरी और बच्चों के गुमशुदा  होने की खबर आती रहती हैं.इसीलिए बच्चों को अवैध रूप से गोद लेने का चलन भी बढ़ा है.साथ में बच्चों  की तस्करी भी।

बच्चा गोद लेने के कानून कठोर

बच्चे को गोद लेना ना केवल मासूम को माता -पिता का प्यार ,नयी उमंग ,शिक्षा तथा परवरिश की उड़ान देता है। वही गोद लेने वालों के लिए भी खुशियों और संपूर्णता लेकर आता है.सरकार  के कड़े कानून होने का मतलब ये है की बच्चे का शोषण ना हो। बाल मजदूरी और तस्करी जैसे पीड़न और अपराधों का सामना बच्चों को ना करना पड़े। 

बच्चें का पहला अधिकार अपना परिवार 

इस दुनिया में जन्में प्रत्येक बच्चें को परिवार पाने का पूरा हक है. मगर कानूनी  तरीके से। जिससे गोद लेने और देने वाले एक सही और सुरक्षित कानूनी प्रक्रिया के जरिये मासूम को नयी खुशाल जिंदगी का तौफा देते हैं। 

ध्यान दें -

-प्रत्येक शहर में अनगिनत सरकारी एडॉप्शन संस्था करती है काम ,बच्चा गोद लेने के लिए कीजिये इनका इस्तेमाल। 
-www.adoptionindia.nic.in इस वेबसाइट की मदद से आप गोद लेने की सही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं.

Wednesday 23 October 2013

डे कभी ख़त्म होता है भला

मशहूर गायक मन्ना डे का बैंगलोर के अस्पताल में निधन हो गया है। मन्ना डे 94 साल के थे और काफी समय से बीमार चल रहे थे।  मगर 'डे' कभी ख़त्म नहीं होता /
दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित मन्ना डे के नाम से लोकप्रिय प्रबोधचंद डे का जन्म एक मई 1919 को कोलकाता में हुआ था। मन्ना डे ने अपनी गायिकी के सफर में कई भारतीय भाषाओं में लगभग 3500 से अधिक गाने गाए।
आवाज जिसे दी उसने कामयाबी छुई 
मन्ना डे के आवाज का इस्तेमाल जहां-जहां हुआ कामयाबी की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ। मन्ना डे को संगीत के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान के लिए पद्म भूषण और पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा गया। संगीत में उनकी रूचि अपने चाचा केसी डे की वजह से पैदा हुई।
वकील नहीं बने 
हालांकि उनके पिता चाहते थे कि वो बड़े होकर वकील बने। लेकिन मन्ना डे ने संगीत को ही चुना। कलकत्ता के स्कॉटिश कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ मन्ना डे ने केसी डे से शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सीखीं। कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता के दौरान मन्ना डे ने लगातार तीन साल तक ये प्रतियोगिती जीती। आखिर में आयोजकों को ने उन्हें चांदी का तानपुरा देकर कहा कि वो आगे से इसमें हिस्सा नहीं लें।
संघर्ष ही संघर्ष 
23 साल की उम्र में मन्ना डे अपने चाचा के साथ मुंबई आए और उनके सहायक बन गए। उस्ताद अब्दुल रहमान खान और उस्ताद अमन अली खान से उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा। इसके बाद वो सचिन देव बर्मन के सहायक बन गए। इसके बाद वो कई संगीतकारों के सहायक रहे और उन्हें प्रतिभाशाली होने के बावजूद जमकर संघर्ष करना पड़ा। 1943 में आई फिल्म ‘तमन्ना’ के जरिए उन्होंने हिन्दी फिल्मों में अपना सफर शुरू किया और 1943 में बनी ‘रामराज्य’ से वे प्लैबैक सिंगर बन गए। सचिन दा ने ही मन्ना डे को सलाह दी कि वे गायक के रूप में आगे बढ़ें और मन्ना डे ने सलाह मान ली।
भगवान् भरोसे 
मन्ना डे ने कुछ धार्मिक फिल्मों में गाने क्या गाएं उन पर धार्मिक गीतों के गायक का ठप्पा लगा दिया गया। ‘प्रभु का घर’, ‘श्रवण कुमार’, ‘जय हनुमान’, ‘राम विवाह’ जैसी कई फिल्मों में उन्होंने गीत गाए। इसके अलावा बी-सी ग्रेड फिल्मों में भी वो अपनी आवाज देते रहें। भजन के अलावा कव्वाली और मुश्किल गीतों के लिए मन्ना डे को याद किया जाता था। इसके अलावा मन्ना डे से उन गीतों को गंवाया जाता था, जिन्हें कोई गायक गाने को तैयार नहीं होता था। धार्मिक फिल्मों के गायक की इमेज तोड़ने में मन्ना डे को लगभग सात सात लगे।
'आवारा' ने आदमी बनाया 
फिल्म ‘आवारा’ में मन्ना डे के गीत ‘तेरे बिना ये चांदनी’ बेहद लोकप्रिय हुआ और इसके बाद उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में मौके मिलने लगे। ‘प्यार हुआ इकरार हुआ..’ (श्री 420), ‘ये रात भीगी-भीगी..’ (चोरी-चोरी), ‘जहां मैं चली आती हूं..’ (चोरी-चोरी), ‘मुड-मुड़ के ना देख..’ (श्री 420) जैसी कई सफल गीतों में उन्होंने अपनी आवाज दी। मन्ना डे जो गाना मिलता उसे गा देते। ये उनकी प्रतिभा का कमाल है कि उन गीतों को भी लोकप्रियता मिली। उनका सबसे मशहूर गाना ‘कस्में वादे प्यार वफा..’ था।

पालटिक्स के भी रहे शिकार 
भारतीय फिल्म संगीत में खेमेबाजी उस समय जोरों से थी। सरल स्वभाव वाले मन्ना डे किसी कैम्प का हिस्सा नहीं थे। इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। उस समय रफी, किशोर, मुकेश, हेमंत कुमार जैसे गायक छाए हुए थे और हर गायक की किसी न किसी संगीतकार से अच्छी ट्यूनिंग थी। साथ ही राज कपूर, देव आनंद, दिलीप कुमार जैसे स्टार कलाकार मुकेश, किशोर कुमार और रफी जैसे गायकों से गंवाना चाहते थे, इसलिए भी मन्ना डे को मौके नहीं मिल पाते थे। मन्ना डे की प्रतिभा के सभी कायल थे। लेकिन साइड हीरो, कॉमेडियन, भिखारी, साधु पर कोई गीत फिल्माना हो तो मन्ना डे को याद किया जाता था। कहा तो ये भी जाता था कि मन्ना डे से दूसरे गायक डरे थे इसलिए वे नहीं चाहते थे कि मन्ना डे को ज्यादा अवसर मिले।