Thursday 31 October 2013

नए अखबार नई वेश्या की तरह हैं

''अखबार , खासतौर पर हिंदी अखबार अपने आप दयनीय अवस्था में नहीं पहुंचे हैं बल्कि मूढ़ता के चलते इसका बंटाढार किया गया है/ इसमें सिर्फ अखबार मालिकों का दोष नहीं है , वे तो कुछ जानते-समझते भी नहीं सिवा अपने  उद्योग के, बल्कि सम्पादकों का उनके हाथों बिक जाने का सबसे बड़ा दोष है/ वे समझबूझ खो चुके है , जितनी शेष है वह खुद के स्तर  और चमकने के लक्ष्य तक ही सीमित है/ दूसरी ओर  जिन्हें हम स्थापित अखबार  समझते हैं उनमें भी अधिक रचनात्मक लेखन नहीं हो रहा/ चूंकि वे स्थापित है और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं/ इसे हिन्दी अखबारों के लिए भले सुखद मान लिया जाए किन्तु विषय गंभीर है/ आखिर क्या कारण है कि अखबार चल नहीं पाते या जो चलते हैं उनसे  संतुष्टि नहीं मिलती?''  इस गम्भीर विषय पर हमने कई गणमान्य और सुधी जनों को एकत्र किया तथा उनसे जानने समझने का प्रयत्न किया कि  अखबारो  की ह्त्या के पीछे कौन है ? इसकी जांच करते हुए कुछ  वरिष्ठ पत्रकार , सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों के अधिकारी , अध्यापन कार्य में लगे प्रोफेसर्स -लेक्चरर तथा संगीत की दुनिया से जुड़े एक गायक ने मदद की और चर्चा में हिस्सा बनकर असल कारणों को तलाशा /'' आइये पढ़ें और समझे अखबारों के इस गिरते स्तर को तथा इसे बेहतर बनाने के लिए आगे बढ़ें -



अभिमन्यु शितोले -
(मेट्रो संपादक - नवभारत टाइम्स, मुम्बई )
आपने लिखा, “हिन्दी के अखबारों की दशा दयनीय है/ जिन्हें हम स्थापित अखबार समझते हैं उनमें भी अधिक रचनात्मक लेखन नहीं हो रहा/ चूंकि वे स्थापित हैं और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं/ इसे हिन्दी अखबारों के लिए भले सुखद मान लिया जाए किन्तु विषय गंभीर है/ आखिर क्या कारण है कि अखबार चल नहीं पाते या जो चलते हैं उनसे संतुष्टि नहीं मिलती?”
विषय बहुत वृहद है पर बिना किसी भूमिका के संक्षेप में अपनी बात रख रहा हूं...
समाचार पत्र चाहे हिंदी का हो या किसी भी अन्य भाषा का, उसके विकास की एक प्रक्रिया होती है। बिल्कुल उसी तरह जैसे इंसान का बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो उसे पनपने के लिए पहले लाड़-प्यार, शिक्षा-दिक्षा की जरूरत होती है इस दौरान उस पर जैसे संस्कार होते हैं वह उन्हीं संस्कारों के अनुरूप कार्य करता है। ठीक इसी तरह समाचार पत्रों की विकास प्रक्रिया है। शुरूआत में किसी भी समाचार पत्र को अपने पैर जमाने के लिए मालिकों के लाड़-प्यार की जरूरत होती है। साथ ही साथ जो लोग समाचार पत्र के लिए काम कर रहे हैं (सिर्फ संपादकीय विभाग के लोग ही नहीं अपितु समाचार पत्र के समूचे कर्मचारी) उन्हें प्रशिक्षित करने की आवश्यक्ता होती है ताकि वे समाचार पत्र को अच्छे संस्कार दे सकें, अर्थात उसकी दिशा और दशा, आचार और व्यवहार को निर्देशित कर सके। इस प्रक्रिया से जब कोई समाचार पत्र तैयार होता है तो वह स्थापित भी होता है और टिके भी रहता है। एक और महत्वपूर्ण तथ्य को मैं रेखांकित करना चाहता हूं “किसी भी समाचार पत्र की लॉन्चिंग से पहले की जाने वाली नियुक्तियां समाचार पत्र के भाग्य लिखती है” पर हो यह रहा है कि किसी भी नए समाचार पत्र को संस्कारित संतान की तरह नहीं बल्कि कोठे पर आई नई वेश्या की तरह पहले दिन से ही ग्राहकों को खुश करने की अनिवार्य और अंतिम शर्त के साथ ल़ॉन्च किया जा रहा है  और इसके लिए नियुक्तियों का पैमाना भी वैसा ही है। जैसे परिणाम सामने आ रहे हैं वे किसी से छिपे नहीं है।
भाषाई, कस्बाई, वैचारिक और व्यावसायिक हर तरह के समाचार पत्र में काम करने के ढाई दशक बाद में इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि नए से शुरू होने वाले हर समाचार पत्र के प्रबंधन को सबसे पहले इस बात की व्यवस्था करनी होगी कि जिन भी पत्रकारों को वो अपने समाचार पत्र से जोड़ रहे हैं उनके प्रशिक्षण को अनिवार्य बनाया जाए। यह प्रशिक्षण कम से कम 6 महीने का हो, ताकि टीम को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जा सके की उसे क्या करना है, किस तरह करना है, उसके पास साधन क्या है, उसका साध्य क्या है। तब जाकर एक सधी हुई दिशा और दशा का समाचार पत्र आकार ले पाएगा। तब जो समाचार पत्र बनेगा उसमें रचनात्मक लेखन भी होगा और पाठक को संतुष्टि भी मिलेगी।
आपने कहा कि स्थापित अखबार चूंकि स्थापित हैं और दूसरे उनकी जगह नहीं ले पाते इसलिए वे घरों में टिके रहते हैं... सच है जब विकल्प नहीं होगा तो बदलाव भी नहीं होगा, लेकिन स्थापित होना और टिके रहने में सिर्फ विकल्पहिनता ही नहीं एक मात्र वजह नहीं है, इसमें स्थापित होने और टिके रहने की काबिलियत की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्ना बाजार में उपभोक्ता के लिए क्या ‘ABC ‘  और क्या ‘XYZ’। पिछले ढाई दशक में मैंने पाठकों को कई बार 99 रुपये की स्कीम के लिए अपनी ‘लायलटी’ बदलते देखा है। बहरहाल मैं पूरी शिद्दत के साथ कहना चाहता हूं कि किसी भी समाचार पत्र के लिए स्थापित होना मुश्किल जरूर हो सकता है नामुमकिन कतई नहीं, लेकिन अनिवार्यता इस बात की है कि जो लोग समाचार पत्र के प्रकाशन के क्षेत्र में आ रहे हैं उन्हें धंधे और बाजार के फर्क को पहचानना होगा। बाजार की भाषा में कहूं तो समाचार पत्र एक प्रॉडक्ट जरूर है लेकिन शैंपू और डायपर की तरह नहीं है जो समय उम्र के हिसाब से बदलते जाते हैं। समाचार पत्र प्रॉडक्ट है इक्विटी निवेश की तरह का, जिसमें लोग इसलिए निवेश करते हैं ताकि खुद को आने वाले कल के लिए अपडेट रख सकें। इसलिए याद रखें जो समाचार पत्र अपने पाठकों को उसके निवेश का अच्छा रिटर्न देंगे वे ही टिक सकेंगे। खासकर तब जब मोबाइल मीडिया की बहुत बड़ी चुनौती सामने है। जहां पल-पल पर अपडेट है, बदलाव है और सोशल कनेक्ट है। जो अखबार स्थापित होना चाहता है, घरों में टिके रहना चाहता है उसे पंरपरागत ढर्रे को छोड़कर नए मार्ग खोजने होगें...। इंवेट, न्यूज और स्टोरी के बीच के महीन अतंर को पहचानना होगा। टीवी पर दिन भर च्युंगम की तरह चबाकर थूंकी गईं खबरों का गुब्बारा फुलाने से काम नहीं चलेगा, समाज की अनछुई खबरों पर फोकस करना होगा। सनसनी कभी-कभार ठीक है पर ज्यादातर स्थानीय स्तर पर समाज के बड़े वर्ग को आंदोलित करने वाली खबरों को महत्व देना होगा। यह बड़ा श्रम साध्य कार्य है और बिना मानव संसाधनों को इसके लिए प्रशिक्षित किए यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से भाषाई समाचार पत्रों में अब पत्रकारों को प्रशिक्षित करने की परिपाटी का अंत हो चुका है। और बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि कुकुरमुत्ते की तरह उग आए – मीडिया इंस्टिट्यूट्स और बीएमएम कोर्सेस आजीवन बेरोजगारी और नाकारेपन के सर्टिफिकेट बन कर रह गए हैं। शिक्षा के नाम पर टाइम पास और अभिभावकों के पैसे की बर्बादी के अलावा ये नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हैं। इसलिए अगर कोई प्रकाशक अच्छा सामाचर पत्र निकालना चाहता है तो उसे खुद ही अपनी टीम को प्रशिक्षित कराने का बीड़ा भी उठाना होगा, तभी उसके समाचार पत्र के प्रकाशन में किए गए उसका निवेश लाभ अर्जित कर सकेगा।

अजय भट्टाचार्य 
(सम्पादक 'भजन-कीर्तन') 
सबसे  बड़ी दिक्कत यह है कि अब खबरियों को भी पत्रकार बनाने का सिलसिला चल निकला है। नये अख़बार बिना किसी तैयारी के निकल रहे हैं। जोड़ तोड़ के महारथी आज अख़बारों में, चैनलों पर व अन्य मीडिया माध्यमो पर आसीन हैं। नयी पीढ़ी मेहनत नहीं करना चाहती। सिंडिकेट बना हुआ है। बावा किस किस पर क्या क्या लिखोगे? जिनको अपना नाम लिखना नहीं आता वे पत्रकार संगठन बना कर दलाली में लगे हैं। आज स्थिति यह है कि किसी बड़े अख़बार से जुड़ा टुच्चा सा अंशकालीन अपने को धर्मवीर भारती से कम नही समझता। जाने दीजिये  बात निकलेगी तो कई नंगी सच्चाइयां हमारे पेशे की  विद्रूपता को उद्घाटित कर देंगी।


डॉ. अजीत
(लेक्चरर ' गुरुकुल कांगरी विश्विद्यालय , हरिद्वार ')
हिन्दी समाचार पत्रों के साथ कई नई प्रवृत्तियां जुड गई है जो मानक पत्रकारिता की सीमाओं का अतिक्रमण करती है मसलन खबरों का अत्याधिक स्थानीयकरण, विज्ञापन के स्पेस का बढ जाना,वैचारिकी पक्ष को कोरम की तरह प्रकाशित करना ऐसे मे एक जागरुक पाठक निश्चित रुप हिन्दी पट्टी के अखबारों को देखकर निराश होता है। पहले अखबार एक सन्दर्भ के रुप मे प्रयोग किए जाते है लेकिन लाईव और खबरों की आपाधापी में अब अखबार की विश्ववसनीयता पर सवाल खडे कर दिए है। अखबार मे घटती वैचारिकी और समाचार प्रकाशित करने की अंध दौड नें हिन्दी अखबार की गरिमा को कम किया है। अखबार हमे तभी संतुष्टि दे पाते है जब वो हमे खबरों के लिहाज़ से अपडेट रखे और दिमाग की खुराक के लिए निष्पक्ष वैचारिकी को भी रुचिपूर्वक प्रकाशित करें।

इद्रजीत अकलेचा 
(डेवलपमेंट अधिकारी , 'न्यू इंडिया इंश्युरेंस कम्पनी' खरगोन म.प्र. )

मुझे  यह भी लगता है कि जैसे मै दैनिक भास्कर और नईदुनिया घर पर आते है तो वह पढ़ता ही हू,तो जो इन अखबारो ने स्थानीय खबरो को स्थान देने के लिये 3-4 पेज दिये है साधरणतयाः उससे लोगो का झुकाव उन समाचारो को पढ़ने मे हुवा है,जिससे वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरो के लिये समय नही निकाल पाते है,और इससे कही ना कही अखबारो मे छपने वाली खबरो की गुणवत्ता  पर फरक तो पड़ा है,क्योकि अखबार भी बाजार वाद की चपेट मे है और छपता वही है जो बिकता है.

विजय साप्पत्ती 
(कवि, हैदराबाद, आंध्र प्रदेश )   
मेरे विचार से धन की लालसा , पद की लालसा और खुद के स्वाभिमान की हत्या , और ज़िन्दगी की rat race  में आगे निकलने की स्पर्धा इन्ही सब बातो ने अख़बार जैसे अच्छे माध्यम को बिकाऊ बनाकर रख दिया है . . मुझे याद आता है पंजाब केसरी की बात , क्या दम था अखबार के मालिको में . ऐसे अखबार आजकल कहाँ  है.

आशीष दुबे 
(गायक-अभिनेता  , आजमगढ़ उ.प्र.)  
मैने इतिहास में  पढ़ा है कि रजवाड़े चाटुकार इतिहासकार पैसे दे कर पालते थे, जो एक पक्षीय  इतिहास लेखन करते थे...वे प्रजा की समस्याओ से अनभिज्ञ होते थे...आज के दौर में मीडिया  भी वही कर रही है जो दरबारी इतिहासकार करते थे....पैसा,तोहफा और सरकारी सम्मान की लालच मे जो सरकार चाहती है उसे लिखते और दिखाते है...ये लोकतंत्र व्यवसायीकरण है...

(....शेष अगली पोस्ट में ).

Monday 28 October 2013

रंगीला राजेन्द्र

अपनी आदतों और अपने विवादों के बावजूद उनका इतना अधिक जी लेना भी तो करिश्मा ही है

कितने आते  और चले जाते हैं/ कौन किसे याद रखता है/ याद रह जाते हैं उसके कर्म/ अच्छे या बुरे/ और यह  भी समय कि जिल्द में दबकर पीछे और पीछे , इतने कि भुला दिए जाते हैं/ ऐसा होना भी चाहिए/ ऐसा न हो तो नए के लिए मुसीबत हो सकती है/ प्रकृति ऐसा नहीं करने देती , इसलिए जाने वाले का शोक न हो / आने वाला का स्वागत होना चाहिए/
साहित्य में राजेन्द्र यादव का जो कुछ भी योगदान है वो साहित्य की अपनी धरोहर है/ आदमी जब लिख लेता है तो उसकी रचना धरोहर बन जाती  है / यानी लेखक तो लिख कर जा चुका/ अब वो नया ही लिख सकता है / इसलिए राजेन्द्र यादव का अवसान मेरी नज़रों में किसी प्रकार की क्षति नहीं है/ अपनी आदतों और अपने विवादों के बावजूद उनका इतना अधिक जी लेना भी तो करिश्मा ही है/ फिर वे कोइ तुलसीदास नहीं है कि अमर हो जाएँ/ अमरता के लिए आचरण भी जरूरी होते हैं/ आदमी लिखता कुछ और होता कुछ है/ राजेन्द्र यादव ठीक ऐसे ही थे/ मुझे इस आदमी में उसके लेखन के अतिरिक्त कभी कोइ बात ढंग की नहीं लगी/ उसके बारे में जब जब पढ़ा , जब जब सुना  ,बुरा पक्ष ज्यादा रहा जिसे ये आदमी अपना व्यक्तित्व मानता रहा/ ठीक है आदमी को अपनी तरह जीने का हक़ है / अगर समय रहते राजेन्द्र यादव अपनी कारगुजारियों के सन्दर्भ में सच कह देते तो ज्यादा बेहतर होता / क्योंकि जो भी सच था  राजेन्द्र यादव अपने संग ले गए/
इस वक्त उनके जाने से 'हंस' को काफी बड़ा झटका लगा है / या यूं भी कह सकते हैं, अब वो मुक्त हुआ है/ मुक्त इस मायने में कि 'हंस' अब किसी दूसरे को तलाशेगा और बैठायेगा/ वो राजेन्द्र यादव नहीं होगा / सम्भव है 'हंस' के दफ्तर में अब लड़कियों का जोरशोर न रहे/ लडकियां और राजेन्द्र यादव दोनों हमेशा मिस्ट्री  बने रहे/ इस मिस्ट्री युग का अंत हुआ समझो/ यादव जी सचमुच अपने आप में एक रहस्य थे/ रहस्य ही रह कर निकल लिए/
'सारा आकाश' से प्रसिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद राजेन्द्र यादव रुके नहीं/ अपनी रंगमिजाजी और मंचीय उपस्थिति से उन्होंने खुद को लगभग हमेशा चर्चा में रखा/ उम्र के तथा अपने लेखन के भी अंतिम पढ़ाव पर आने के बाद भी उनके बारे में मुझे कोइ यह कहते नहीं मिला कि ये आदमी गजब की आदमीयत वाला है/
मैं राजेंद्र  यादव को करीबी समझता रहा / राजेन्द्र यादव मेरे करीब भले न रहे हों/  किन्तु उनकी जीवनी, उनका लेखन और मेरा साहित्य तथा पत्रकारिता में सक्रीय रहना राजेन्द्र यादब नामक शख्स के करीब मुझे रखता रहा/ उनके सन्दर्भ में सुनना- उनका लिखा पढ़ना और उनका मंच से बोलना इत्यादि मेरे लिए उनकी एक छवि का निर्माण करता  रहा था/ फिर कुछ महिलाओं द्वारा उनके बारे में कहते रहना , दबी जुबान का गॉसिप भी तो इस छवि में इजाफा करता रहा/ कितना सच कितना झूठ पता नहीं/ किन्तु आदमी जब भी सार्वजनिक हो जाता है तो उसे खुद को उन संदेहों से बाहर निकालने का प्रयत्न करना चाहिए जो गहराते रहते हैं/ शायद राजेन्द्र यादव को इसमें भी आनंद प्राप्त होता था इसलिए वे संदेहों को ही गढ़ते रहे / अंत तक गढ़ते रहे/ उस वक्त भी जब अंतिम मामला पुलिस तक पहुँच गया/ ख़ैर/ आदमी वाकई रंगीला था/ उसने जैसे जीना चाहा शायद जिया/ इन सबको नज़र अंदाज़  करने के बावजूद कि पारिवारिक जीवन में वो ज्यादातर  अकेले ही दिखा/ पर एक साहित्यकार   के रूप में राजेन्द्र यादव ने अच्छी पैठ जमा कर रखी जो अंत तक कायम रही/ यह सच है कि  उनके जाने और उनके पीछे छोड़ जाने वाले कई संस्मरणों को लोग अपने अपने तरीके से याद रखेंगे / वे एक शख्सियत तो थे ही / और यही वजह भी है कि उनके बारे में लिखा जाता रहा/ लिखा जा रहा है/
आप यह बिलकुल कह सकते हैं के राजेन्द्र यादव रंगीले रहे / रंगीले होना यानी रंग से सराबोर होना होता है/ राजेन्द्र यादव ने साहित्यिक जीवन में कई कई रंग बिखेरे हैं/ अब वो इस दुनिया में नहीं हैं किन्तु उनके द्वारा बिखेरे गए रंग मौजूद हैं, मौजूद रहेंगे / 

मोदी नहीं मुसलमान निशाने पर हैं

यह इतिहास रहा है कि जब जब भारत के मुसलमान बदलाव चाहने लगे, वे हिंदुओं के संग रहना चाहने लगे तब तब उन्हें तोड़ा गया है/ और यह जितना देश के भीतर हुआ, उससे कहीं ज्यादा देश से बाहर योजनाएं बनीं। पटना बम विस्फोट ने एक बार फिर जाहिर करना   शुरू कर दिया है कि मोदी नहीं बल्कि मोदी के सहारे मुसलमान निशाने पर हैं/ आप देखें तो यही पाएंगे कि पाकिस्तान में भारत के अंदर आतंक फैलाने की साजिश होती है , उन जगहों पर ज्यादा जहां हिन्दू बहुल हो या भीड़ भाड़ / उन लोगों पर ज्यादा जिन्हें हिन्दू वादी समझा जाता है/ क्यों? यह कोइ हिंदूवादी को मारकर जीत का जश्न नहीं है बल्कि भारतीय मुसलमानों के खिलाफ आग भड़क उठे, इस चाहत का जश्न होता है/ 
गांधी मैदान विस्फोट और कंधे पर ले जाता एक  घायल को पुलिसवाला 
भारतीय मुसलमान निस्संदेह भारतीय हैं / ये आतंकवादी बेहतर जानते हैं/ यही वजह है कि वे भारत में अपने गुर्गे  भेज कर इनकी मानसिकता में जहर घोलते हैं और साजिश को अंजाम देते हैं/ होता क्या है? कुछ मुसलमान पकड़ा जाते हैं/ इनके तार पाकिस्तान से निकलते हैं/ भारतीय जनमानस में एक सीधा संकेत जाता है मुसलमान विरोधी है/ हिन्दू भड़कते हैं/ मुसलमान भड़कते हैं/ दंगे होते हैं/ हमारी जानें जाती है/ हम   ही मरते हैं/ हमारी ही हानि होती है /  दूर बैठे आतंकवादी और उनके आकाओं की साजिश सफल हो जाती है/ इस बात को भारतीय मुसलमान बहुत अच्छी तरह से जान गया है/ होता यह है कि हमारे यहाँ राजनीति इनकी सोच और इनकी मनोदशा को वोटबैंक की खातिर कुंद बनाये रखती है / अब जब मोदी ने एक नई दिशा देने की कोशिश की है और  मोदी में भारतीय मुस्लमान भी अपना सुरक्षित भविष्य देख रहे हैं तो यह बाहर बैठे आतंकवादियों के लिए आँख में किरकिरी है/ वे चाहते हैं कि ऐसा कुछ हो न सके, वे मेल नहीं चाहते/ 
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि भारतीय मुसलमान भारतीय मानसिकता रखता है, उसे हिंदुत्व से गुरेज नहीं है/   हिंदुत्व इस देश का मूल है/ और यह कोइ जातिगत तत्व नहीं है बल्कि मुख्य  धारा है/ सुप्रीम कोर्ट तक ने इसकी व्याख्या की है और यह साबित हो चुका है कि भारत में रहने वाला प्रत्येक शख्स हिंदुत्व की छत्रछाया में है/ वह इसकी रक्षा पीढ़ियों से करता आया है/ आज भी कर रहा है और भविष्य में भी करेगा/ किन्तु ये जो माहौल बिगाड़ने का काम है इसके गर्भ में जाकर हम  सबको सोचना होगा / अन्यथा होगा वही जो अब तक होता आया है, न हम  दिशा पाएंगे न दशा बेहतर होगी/  इस अज्ञान से, इस अन्धकार से बाहर निकल रहा है जनमानस/ वो किसी प्रकार के दंगे नहीं चाहता / बैरभाव नहीं चाहता/ यही सबसे बड़ी ताकत है भारत की / और इसी ताकत को तोड़ने का सिलसिला चल रहा है/ मुसलमानों को ज्यादा विचार करने की आवश्यकता इसलिए है कि यह वार उन पर है/ वो यह देख चुप न बैठे कि जो मारा जा रहा है वह हिन्दू है/ बल्कि उसके पीछे आतंकवादियों की असली मंशा पहचाननी होगी/ वो पूरी मुसलमान कौम को बदनाम करना चाहते हैं/ बदलाव के इस वक्त को पुरजोर तरीके से अपना कर भाईचारे की मिसाल कायम करने की जरुरत है/ हमें देखना होगा, समझना होगा कि हम  कहीं किसी के हाथों की कठपुतली तो नहीं बन रहे/ मुझे हमेशा से ऐसा लगता आया है कि कांग्रेस या उसके समर्थकों ने  जोड़ने के प्रति कम काम किये हैं/ तो देख लेते हैं बदलाव, क्या बिगड़ता है / सम्भव है बदलाव में सुखद वातावरण ही बन जाए/     

Sunday 27 October 2013

राजनीति में आग है पटना के धमाके

धमाकों में मरता तो सामान्य आदमी ही है  
नरेन्द्र मोदी की रैली के पहले पटना  में हुए धमाके और मुख्यमंत्री का पटना से बाहर मुंगेर की ओर निकल जाना , फिर कांग्रेसी प्रवक्ता दिग्विजय सिंह का ट्विट  कि   नितीश को इसकी जांच करानी चाहिए , सब कुछ राजनीति लगती है/ राजनीति में आम जनता को ही मरना होता है इसलिए इस धमाके में भी जो हानि हुई है वो जनता की ही हुई / अब बयान -प्रति बयान हो रहे हैं/ दिल्ली की राहुल रैली की और ध्यान खींचने का यह एक प्रयास माना जा रहा है तो यह भी माना जा रहा है कि राहुल रैली की जगह सुर्खियाँ पटना की ओर मुड  जाए/ भाजपा नितीश प्रशासन पर छींटाकशी कर रही है तो जदयू इसे अपनी तरह से भुनाने की कोशिश/ यहाँ इसके अलावा दूसरा कुछ होता नहीं दिखता / राजनीति और राजनीति में शिकार सामान्य आदमी / इसी आदमी के कन्धों पर बन्दूक होती है, इसी आदमी को मारा जाता है, इसी आदमी को अपने प्रचार-प्रसार के लिए दौडाया जाता है/ मरता-जख्मी होता यही आदमी  है/  
धमाके के बाद के हालात मोदी की रैली के होने इसके सम्पन्न होने के बाद पता चलेंगे किन्तु यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहार में राजनीति का खेल कितना भयानक हो सकता है/ लालू अन्दर हैं अन्यथा यहाँ का दृश्य दूसरा होता / बावजूद उनकी पार्टी निश्चित रूप से नितीश और भाजपा को घेरेगी / आवाम की शान्ति भंग जैसे आरोप लगेंगे/ सब कुछ होगा /  मगर सामान्य आदमी के जख्मों का कोइ उपचार नहीं होगा /  उधर कांग्रेस को मुद्दा मिल गया है, राहुल इस धमाके को अपने भाषण का मुद्दा बना लेंगे/ इसकी तैयारी भी होती दिखती है दिग्गी के ट्विट  से / बहरहाल , धमाके कहीं भी हो, यह आदमीयत के लिए हमेशा बुरा ही है /

Saturday 26 October 2013

कैसे ज़िंदा रह लेते हैं ये कांग्रेसी ?

भय है , यदि मत्था न टेका तो जड़ से उखाड़ फेंके जायेंगे 

ताज्जुब है, कांग्रेस में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो  राहुल गांधी की बकवास को रोकने की बहादुरी दिखा सके/  इन निर्वीर्य नेताओं पर लानत है/ इन नेताओं में से अगर एक भी नेता अनाप शनाप बकता तो उसे कबका कांग्रेस से बाहर निकाल दिया जाता / वाह  री स्वामी भक्ति/ हद हो गयी है, अपने स्वाभिमान, अपने जमीर सबकुछ को तो न्योच्छावर कर दिया गया है और खुद को बुद्धिमान, अक्लमंद बताये फिरते हैं/ कैसे ज़िंदा रह लेते हैं ये कांग्रेसी ?
नरेन्द्र मोदी का तूफ़ान है/ इस तूफ़ान को रोकने ही राहुल गांधी ने खुद कमान संभाली/ यह अच्छा भी था/ मगर कमान संभालने का मतलब जबान संभालना भी होता है/ और जबान तब ही संभल सकती है जब दिमाग में जानकारियाँ हो , देश हित हो , सामान्य ज्ञान हो/ इसके अलावा जो सलाहकार हैं वे कम से कम चाटुकार न हो/ पर इस गांधी परिवार को खुशामदी लोगों के अलावा दूसरा कुछ पसंद भी तो नहीं है/ और ये कांग्रेसी बखूबी जानते हैं कि यदि मत्था न टेका तो जड़ से उखाड़ फेंके जायेंगे / और इनकी रोजी रोटी भी तो यही है / लिहाजा जो आज्ञा हुजूर की भांति सबके सब खड़े दीखते हैं/
मुझे अब तक लगता था कि हो न हो ऐन  चुनाव के मौके पर कांग्रेस हमेशा की तरह बाजी मार ले जायेगी / मगर अब नहीं लगता/ अब सचमुच नहीं लगता / अपने कुछ मित्रों से, जो पक्के कांग्रेसी रहे, जब बातें होती है तो उनका कहना है राईट टू  रिजेक्ट   ज्यादा बेहतर है / वे अगर भाजपा को विकल्प नहीं मानते तो कांग्रेस को ही वोट देंगे ऐसा नहीं है/ अब राईट टू रिजेक्ट का आप्शन ऐसे लोगों के लिए है/
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की यह गत इस वजह से बनी कि बीजेपी को लोग पसंद करने लगे/ उसके अपने जो वोट थे, वे तो हैं ही , मगर राहुल-सोनिया के आकर्षक विहीन रवैये के कारण वे सोचने पर मजबूर हो गए , दूसरी ओर   कमजोर सत्ता संचालन और महंगाई से कुचल चुकने की वजह ने लोगों को  लगभग तोड़ कर रख दिया है, इस पर भी सत्ता संभाले किसी भी नेता के चहरे  तड़प रही जनता पर उदास होते नहीं दीखते/ उन्हें जब भी देखा जाता है वे सोनिया और राहुल के गुणगान में लगे दीखते हैं/ राहुल गलत-सलत बोल रहे हैं तो ये नेता उनका बचाव करते कुतर्क कर रहे हैं/ क्या  जनता इतनी बेवकूफ हैं कि इनके बेवकूफ होने को भी सहे, और गांधी परिवार की ड्यूटी बजाते इन नेताओं पर गर्व करे /  इन नेताओं की रोजी रोटी या घर परिवार गांधी भक्ति से चल सकता है किन्तु आम जनता को तो सड़क पर निकलना  होता है/ उसे रोज अपना पेट काट कर बच्चे पालना होता है/ क्या यह इस विकट  दौर में आन पडी मजबूरी नहीं है, जो विकल्प ढूँढने  की ओर  स्वतः ही मोड़ती है?

Thursday 24 October 2013

अरे, कन्हैया  किसको कहेगा तू मैया ?


गैर  क़ानूनी तरीके  से बच्चा गोद लेने  की तादाद बड़ी 


घटनाओं पर पैनी नज़र रखना और उसे जन जन के सामने लाकर समाधान का प्रयास करना कोइ आसान कार्य नहीं होता  / इसके लिए रिपोर्टर्स   को न केवल तेज तर्रार होना होता है बल्कि  पूरी समझ बूझ के साथ स्थितियों का सामना भी करना होता है / ऐसी ही एक तेज तर्रार और संजीदा रिपोर्टर हैं प्राची दीक्षित, जिन्होंने ख़ास तौर  पर 'खबर गल्ली' के लिए अपनी एक ख़ास रिपोर्ट प्रेषित  की है / "


मुंबई स्थित इंडियन एसोसिएशन फॉर प्रमोशन ऑफ़ एडॉप्शन अण्ड चाइल्ड वेलफेयर की रिपोर्ट के अनुसार ,गैर  कानूनी ढंग से बच्चा गोद लेनें वालों की तादाद  बढ़ती ही जा रही है.कुछ  विवाहित जोड़े , बच्चा गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए या फिर मानव व्यापार के लिए बच्चा गोद लेते हैं.इसके चलते आश्रमों और एडॉप्शन संस्था को , बच्चा ना होने की किल्लत  का सामना करना पड़ रहा हैं.
इंडियन एसोसिएशन फॉर प्रमोशन ऑफ़ एडॉप्शन अण्ड चाइल्ड वेलफेयर की प्रभारी  सविता नागपूरकर का कहना है कि  हमारे अब तक के अनुभव से हमें यह ज्ञात हुआ है, अधिकतर कपल्स कानूनी झंझटों से निजात  पाने के लिए इस तरह के कदम उठातें हैं. जिसमें डॉक्टर और एजेंट्स उनका साथ देते है.हमारे पास एडॉप्शन की डिमांड ज्यादा है और बच्चें कम। जिसकी एक मात्र वजह हैं गैरकानूनी तरीका इस्तेमाल करना। देश भर में हर एक संस्था को इस तरह की गंभीर समस्यां का सामना करना पड़ रहा। 
आए.ए पी.ए (मुंबई ) ने बच्चों को कूड़ेदान में ना फेकने,बाल मजदूरी ,अशिक्षा जैसे अनगिनत अपराधों अथवा अत्याचारों से बचानें के लिए ट्रेनों और रेलवे स्टेशन पर बचपन बचाओं अभियान भी किया। 

कहाँ  से आते हैं ये बच्चें ?

आखिर अनाथ आश्रम में बच्चें कहाँ से आते है? कौन हैं इनके माता पिता ? जन्म के बाद क्यूँ इन्हें कचरा पेटी  या रास्तों पर छोड़ दिया जाता हैं ? लड़की होने का अभिशाप ,गरीबी, अशिक्षा ,शायद इसकी वजहों में से एक हो सकती है. लेकिन इसकी असली वजह लोगो की ऐसी  मानसिकता है जो  बच्चा पैदा करना तो जानती है मगर उसकी जिमेदारी से दूर भागने में ही अपनी भलाई समझती है/ ऐसे अनगिनत माता -पिता है जो अपनी जिम्मेदारियों  से पल्ला झाड़ते  हुए ,अपनी कोख से जन्मे को कूड़ेदान या फिर किसी अनजान जगह पर छोड़ देते है. इसके बाद या तो वो अनाथ आश्रम पंहुचा दिए जाते हैं या फिर किसी गलत संगठन के पास पहुँच जाते हैं.हमारा समाज भी इन ठुकराए हुए बच्चों के प्रति कोई खास सवंदेंशील भूमिका नहीं निभाता। उनके लिए एक मात्र जगह रह जाती है आश्रम और पहचान के तौर पर अनाथ होने का घाव। 

ममता बनी मुसीबत 

बच्चा गोद लेना मतलब अंधकार में घुट रहें बचपन को जिंदगी देना। बच्चा गोद लेना अभी -भी भारत में सामान्य और आसन  नहीं है.आये दिन अख़बारों और न्यूज़ चैनल में ,अस्पतालों और रेलवे स्टेशन से बच्चा चोरी और बच्चों के गुमशुदा  होने की खबर आती रहती हैं.इसीलिए बच्चों को अवैध रूप से गोद लेने का चलन भी बढ़ा है.साथ में बच्चों  की तस्करी भी।

बच्चा गोद लेने के कानून कठोर

बच्चे को गोद लेना ना केवल मासूम को माता -पिता का प्यार ,नयी उमंग ,शिक्षा तथा परवरिश की उड़ान देता है। वही गोद लेने वालों के लिए भी खुशियों और संपूर्णता लेकर आता है.सरकार  के कड़े कानून होने का मतलब ये है की बच्चे का शोषण ना हो। बाल मजदूरी और तस्करी जैसे पीड़न और अपराधों का सामना बच्चों को ना करना पड़े। 

बच्चें का पहला अधिकार अपना परिवार 

इस दुनिया में जन्में प्रत्येक बच्चें को परिवार पाने का पूरा हक है. मगर कानूनी  तरीके से। जिससे गोद लेने और देने वाले एक सही और सुरक्षित कानूनी प्रक्रिया के जरिये मासूम को नयी खुशाल जिंदगी का तौफा देते हैं। 

ध्यान दें -

-प्रत्येक शहर में अनगिनत सरकारी एडॉप्शन संस्था करती है काम ,बच्चा गोद लेने के लिए कीजिये इनका इस्तेमाल। 
-www.adoptionindia.nic.in इस वेबसाइट की मदद से आप गोद लेने की सही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं.

Wednesday 23 October 2013

डे कभी ख़त्म होता है भला

मशहूर गायक मन्ना डे का बैंगलोर के अस्पताल में निधन हो गया है। मन्ना डे 94 साल के थे और काफी समय से बीमार चल रहे थे।  मगर 'डे' कभी ख़त्म नहीं होता /
दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित मन्ना डे के नाम से लोकप्रिय प्रबोधचंद डे का जन्म एक मई 1919 को कोलकाता में हुआ था। मन्ना डे ने अपनी गायिकी के सफर में कई भारतीय भाषाओं में लगभग 3500 से अधिक गाने गाए।
आवाज जिसे दी उसने कामयाबी छुई 
मन्ना डे के आवाज का इस्तेमाल जहां-जहां हुआ कामयाबी की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ। मन्ना डे को संगीत के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान के लिए पद्म भूषण और पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा गया। संगीत में उनकी रूचि अपने चाचा केसी डे की वजह से पैदा हुई।
वकील नहीं बने 
हालांकि उनके पिता चाहते थे कि वो बड़े होकर वकील बने। लेकिन मन्ना डे ने संगीत को ही चुना। कलकत्ता के स्कॉटिश कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ मन्ना डे ने केसी डे से शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सीखीं। कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता के दौरान मन्ना डे ने लगातार तीन साल तक ये प्रतियोगिती जीती। आखिर में आयोजकों को ने उन्हें चांदी का तानपुरा देकर कहा कि वो आगे से इसमें हिस्सा नहीं लें।
संघर्ष ही संघर्ष 
23 साल की उम्र में मन्ना डे अपने चाचा के साथ मुंबई आए और उनके सहायक बन गए। उस्ताद अब्दुल रहमान खान और उस्ताद अमन अली खान से उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा। इसके बाद वो सचिन देव बर्मन के सहायक बन गए। इसके बाद वो कई संगीतकारों के सहायक रहे और उन्हें प्रतिभाशाली होने के बावजूद जमकर संघर्ष करना पड़ा। 1943 में आई फिल्म ‘तमन्ना’ के जरिए उन्होंने हिन्दी फिल्मों में अपना सफर शुरू किया और 1943 में बनी ‘रामराज्य’ से वे प्लैबैक सिंगर बन गए। सचिन दा ने ही मन्ना डे को सलाह दी कि वे गायक के रूप में आगे बढ़ें और मन्ना डे ने सलाह मान ली।
भगवान् भरोसे 
मन्ना डे ने कुछ धार्मिक फिल्मों में गाने क्या गाएं उन पर धार्मिक गीतों के गायक का ठप्पा लगा दिया गया। ‘प्रभु का घर’, ‘श्रवण कुमार’, ‘जय हनुमान’, ‘राम विवाह’ जैसी कई फिल्मों में उन्होंने गीत गाए। इसके अलावा बी-सी ग्रेड फिल्मों में भी वो अपनी आवाज देते रहें। भजन के अलावा कव्वाली और मुश्किल गीतों के लिए मन्ना डे को याद किया जाता था। इसके अलावा मन्ना डे से उन गीतों को गंवाया जाता था, जिन्हें कोई गायक गाने को तैयार नहीं होता था। धार्मिक फिल्मों के गायक की इमेज तोड़ने में मन्ना डे को लगभग सात सात लगे।
'आवारा' ने आदमी बनाया 
फिल्म ‘आवारा’ में मन्ना डे के गीत ‘तेरे बिना ये चांदनी’ बेहद लोकप्रिय हुआ और इसके बाद उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में मौके मिलने लगे। ‘प्यार हुआ इकरार हुआ..’ (श्री 420), ‘ये रात भीगी-भीगी..’ (चोरी-चोरी), ‘जहां मैं चली आती हूं..’ (चोरी-चोरी), ‘मुड-मुड़ के ना देख..’ (श्री 420) जैसी कई सफल गीतों में उन्होंने अपनी आवाज दी। मन्ना डे जो गाना मिलता उसे गा देते। ये उनकी प्रतिभा का कमाल है कि उन गीतों को भी लोकप्रियता मिली। उनका सबसे मशहूर गाना ‘कस्में वादे प्यार वफा..’ था।

पालटिक्स के भी रहे शिकार 
भारतीय फिल्म संगीत में खेमेबाजी उस समय जोरों से थी। सरल स्वभाव वाले मन्ना डे किसी कैम्प का हिस्सा नहीं थे। इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। उस समय रफी, किशोर, मुकेश, हेमंत कुमार जैसे गायक छाए हुए थे और हर गायक की किसी न किसी संगीतकार से अच्छी ट्यूनिंग थी। साथ ही राज कपूर, देव आनंद, दिलीप कुमार जैसे स्टार कलाकार मुकेश, किशोर कुमार और रफी जैसे गायकों से गंवाना चाहते थे, इसलिए भी मन्ना डे को मौके नहीं मिल पाते थे। मन्ना डे की प्रतिभा के सभी कायल थे। लेकिन साइड हीरो, कॉमेडियन, भिखारी, साधु पर कोई गीत फिल्माना हो तो मन्ना डे को याद किया जाता था। कहा तो ये भी जाता था कि मन्ना डे से दूसरे गायक डरे थे इसलिए वे नहीं चाहते थे कि मन्ना डे को ज्यादा अवसर मिले।

Tuesday 22 October 2013

शुभकामनाओं का बाज़ार

अपनी सफलता के लिए दूसरों से शुभकामनाएं मांगना क्या ऐसा नहीं लगता कि आपमें खुद में विशवास ही नहीं है सफल होने का / और इसकी क्या गारंटी है जो शुभकामनाएं दे रहा है वो दिल से दे रहा है या घुटने से / यह एक प्रथा हो चली है/ इसका अपना एक मार्केट है/ उद्योग के लिए जरूरी होता है/ प्रोडक्ट के प्रचार के लिए जरूरी होता है/ दर असल हमने अपने सारे कार्यों को प्रोडक्ट बना लिया है/ संस्कृति, परम्पराएं सभी कुछ / सभी का प्रदर्शन / जब प्रदशन होगा तो ऐसे उपाय किये जाने हैं ताकि आप अपने उत्पाद को अधिक से अधिक हाथों तक बेच सकें/ ऐसे विज्ञापित उत्पाद जरूरी नहीं की प्योर हों / उत्पाद का अर्थ यहाँ सिर्फ वस्तु ही नहीं कहा जा सकता/ आपके अपने विचार भी उत्पाद बन चुके हैं/ हर कोइ छोटी से छोटी चीज को बड़ा बनाकर प्रचारित कराने के मूड में दिखाई देता है/ ऐसे में जो शुभकामनाएं प्राप्त होती भी हैं, उनमें वो तासीर नहीं होती जो होनी चाहिए/ वह भी बाज़ार का एक अंग होकर व्यवहारवाद में शरीक हो जाती हैं/ जिससे अपना काम सधे , जिससे खुशामद हो सके, जिससे खुद को सुरक्षित रखा जा सके, और जो खुद को कृपा पात्र साबित कर सके/ यानी सबकुछ सौदेबाजी है/ शब्दों के माध्यम से सौदेबाजी/ व्यापार / शुभकामनाओं के बाज़ार का अपना एक सीजन होता है/ जैसे कोइ बड़ा त्यौहार / कोइ आयोजन/ कोइ शुभारम्भ / और कामनाओं का ये आदान-प्रदान ढकोसला होने के बावजूद बड़ा कीमती होता है/ इससे आपकी प्रतिष्ठा का आकलन होता है/ आपके उत्पाद की गुणवत्ता निखरती है/ किन्तु इससे सफल होने या सफल ही रहना तय नहीं होता/ क्योंकि जब भी आप या आपका प्रोडक्ट असफल होकर सड़क पर गिर जाता हैं तो ये शुभकामनाएं देने वाले ही उसमें मीन मेख निकालने लगते हैं/ भूल जाते हैं कि इसमें उनकी शुभकामनाओं का रोल भी था/ यह सारा का सारा खेल औपचारिकता है/ जीवन औपचारिक होने लगा है/ क्योंकि आपका व्यवहार औपचारिक हो गया है/ आपका कर्म औपचारिक हो गया है / आप किसी का अहित करके अपना परिवार चलाने को सफलता मानते हैं/ चूंकि बाज़ार है तो यहाँ हर हमेश नए नए प्रोडक्ट बाहर आते हैं और पुराने आउट डेटेड हो जाते हैं / एक्सपायर हो जाते हैं/ ये जो आउट डेटेड या एक्सपायर हैं इनका वजूद लगभग ख़त्म हो जाता है /तब कोइ शुभकामना आपको लाभ नहीं देती , जैसे फिलवक्त की शुभकामनाएं/ शुभकामनाएं सिर्फ आपको सहलाने के लिए होती है/ और आप खुद आत्म सुख के लिए इसे देते-लेते हैं/जैसा दोगे , वैसा पाओगे/

Monday 21 October 2013

'रेप' के सवाल में फंसे राहुल गांधी


आश्चर्य करेंगे कि यह कैसे हो गया / राहुल गांधी और रेप? जी हाँ यह सच है / राहुल गांधी ने रेप मामले में एक  सवाल पूछ कर मुसीबत मोल ले ली है/ दरअसल यह सवाल ही इतना बेबुनियाद और छिछोरा था कि  राहुल  की इमेज इससे ज्यादा सुधरी हो, ऐसा नहीं लगता/ भाजपा को मौके की तलाश थी , लिहाजा वो इस मामले को भुनाने में व्यस्त हो गयी है/
बीजेपी नेता प्रभात झा ने संवाददाता सम्मेलन में कहा, 'राहुल ने शहडोल जिले में कांग्रेस की 17 अक्टूबर को आयोजित रैली को संबोधित करते हुए आदिवासी महिलाओं से पूछा था कि क्या सूबे में बीजेपी के पिछले 10 साल के शासनकाल में उनके साथ रेप हुआ है? कांग्रेस उपाध्यक्ष का महिलाओं से सार्वजनिक तौर पर इस तरह का दुर्भावनापूर्ण सवाल करना घोर आपत्तिजनक है।'
उन्होंने कहा कि वह इस आपत्तिजनक बयान को लेकर मंगलवार 22 अक्टूबर को भोपाल की एक अदालत में राहुल के खिलाफ मानहानि का दावा दायर करेंगे। इसके साथ ही, कांग्रेस उपाध्यक्ष पर अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए अदालत में अलग से शिकायत पेश करेंगे। झा ने कहा, 'राहुल ने रेप पर अपने आपत्तिजनक बयान के जरिए आदिवासियों का जान-बूझकर अपमान किया और इस समुदाय को बीजेपी के खिलाफ भड़काने का प्रयास किया।' 

जब मोदी विराम करेंगे , तब सचिन प्रचार करेंगे

खबर गल्ली रिपोर्टर /
ताज्जुब होगा आपको यह सुनकर कि नरेन्द्र मोदी और सचिन के बीच ये कैसा तारतम्य ? दर असल, कांग्रेस रणनीति के मद्देनज़र एक प्रारूप तैयार किया जा रहा है जिसमें प्रचार को लेकर काफी गंभीरता बरती जा रही है/ फिलवक्त मोदी की प्रचार आंधी में कांग्रेस घबराई सी नज़र आती है / पर भाजपा के इस तेवर का उनके पास भी जवाब है / सचिन तेंदुलकर और रेखा को वे तुरुप का इक्का मान रहे हैं/ कांग्रेस अभी उस समय की प्रतीक्षा में है जब भाजपा के सारे स्टार प्रचारक थक हार कर बैठ जाएँ / इसके बाद कांग्रेस अपना दांव खेलने वाली है / वो सचिन तेंदुलकर और रेखा को मैदान में उतार कर वोट मांगती नज़र आयेगी /
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सचिन व रेखा को प्रचारक की भूमिका में उतारने का कांग्रेस ने  जब मन बनाया तो आलाकमान की और से कोइ आदेश नहीं आया / सूत्र बताते हैं की आलाकमान इन दोनों स्टार प्रचारकों को एन वक्त मैदान में उतारेगी / हालांकि एक खबर यह भी है की सचिन प्रचार नहीं करना चाहते / किन्तु वे कांग्रेस आलाकमान की बात भी नहीं टाल  सकते/ लिहाजा आनेवाले दिनों में कांग्रेसी मंच पर इन दोनों को देखे जाने की पूरी संभावनाएं है/ उधर भाजपा खेमे में इन दोनों के मैदान में उतरने को लेकर ज्यादा कोइ समस्या दिखाई नहीं दे रही/ मध्यप्रदेश के एक भाजपा नेता ने कहा भी है की दोनों को प्रचार करना चाहिए, इससे   हमें कोइ अंतर नहीं पडेगा क्योंकि लोगों के सामने सचिन और रेखा भले हों, वे भ्रष्टाचार, घोटालों को थोड़ी भूल सकते/
 छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रवक्ता सुशील शुक्ला ने बताया, 'हमने प्रचार करने वालों को लंबी लिस्ट आलाकमान के पास मंजूरी के लिए भेजी है।' उधर भाजपा के पास भी लम्बी लिस्ट है/इनमें लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, नवजोत सिंह सिद्धू, हेमा मालिनी और स्मृति ईरानी प्रमुख हैं। पार्टी के प्रवक्ता रसिक परमार ने बताया, 'हमने इन नेताओं के प्रचार के लिए शेड्यूल बनाकर भेज दिया है और मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं।' यानी दोनों ओर मंजूरी की प्रतीक्षा है /  

Sunday 20 October 2013

९८ साल का रोमांटिक युवा


आप इस बूढ़े लेखक को युवा कह सकते हैं/ यह अपने दिमाग से आज भी तरोताजा  है /हालांकि इसने कहा है कि हो सकता है पुस्तक 'द गुड, द बैड एंड द रेडीक्यूलस' उसकी आख़िरी पुस्तक हो सकती है / मगर लगता नहीं कि ये लेखक लिखने में रुके/ जी हाँ, हम बात कर रहे हैं खुशवंत सिंह की / जिनकी किताब     'द गुड, द बैड एंड द रेडीक्यूलस' का विमोचन महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने किया/ इस अवसर  पर खुशवंत सिंह के बेटे राहुल सिंह, जानेमाने पत्रकार मार्क टली समेत कई लोग मौजूद थे/ हिमाचल प्रदेश के कसौली में जारी लिटरेचर फेस्टिवल के अंतिम दिन रविवार को इस पुस्तक का विमोचन किया गया / पुस्तक में क्या है जल्द उसकी समीक्षा की जायेगी /

धकेले ही जानें हैं ओल्ड लीडर

पुराने चावल अब हजम नहीं होते/ दरअसल वक्त की करवट से आये बदलाव ने हाजमें पर भी प्रभाव छोड़ा है/ आपका पेट अब उन चीजों को स्वीकार नहीं करता जिसे एकदम से प्योर कहा जाता है/ तो ये नेता कैसे हजम हो सकते हैं जो परम्परा के अधीन खुद को स्तम्भ मान बैठते हैं / ज़माना युवाओं से चलता है / युवा विचारधारा में खुद को घोल कर ही पुराने लोग अपने अनुभव बाँट सकते हैं न कि इस शेखी में रह कर कि चूंकि हम पुराने, इमानदार और अनुभवी हैं तो हमें सुना  जाए, हमारे इशारों पर रहा जाए/    भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध हो चुके नेता लाल कृष्ण आडवानी ने जिस जिद का प्रदर्शन किया , चलिए भाजपा में नेकी रही कि उन्हें सर आँखों पर बैठा लिया गया  अन्यथा लतिया दिए जाते / अब इधर शिवसेना में भी हाल कुछ ऐसा ही है / यहाँ मनोहर जोशी अपने पुराने और इमानदार शिवसैनिक होने का ढोल पीट कर यह जतला देना चाहते हैं कि उनको  नज़र अंदाज़ किया जाना पार्टी पर भारी पड़  सकता है/ जबकि शिवसेना उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में परिवर्तन की राह पर है जो समय के साथ उचित भी है/ फिर भी कई सारे स्टैंड उद्धव ठाकरे ने संभाले रखें है बावजूद मनोहर जोशी टाइप नेता अपने अहम् के चलते विशेष बनने और विशेष होने का दर्जा चाहते हैं / जबकि नेता तो वह होता है जिसे कहने की आवश्यकता नहीं होती कि वो दिग्गज है या उसको ध्यान में रखा जाए/ अटल बिहारी वाजपेयी का उदाहरण सामने है , जो आज राजनीति से अलग है . बावजूद उनका सम्मान यथावत है/ पुराने नेताओं में जब भी खुद को लेकर असुरक्षा की भावना आ जाती है और वो स्वयं अपने बारे में कहने लगता है तो उसे धकेल कर आगे बढ़ जाना एक नैसर्गिक क्रिया कहलाती है/
मनोहर जोशी निस्संदेह शिवसेना के काबिल सिपहसलार रहें हैं / किन्तु कई बार उनकी हरकतों ने शिवसेना के दर्जेदार तथा युवा लीडरों को सोचने पर मजबूर किया है /  शरद पवार, नारायण राणे या राज ठाकरे जैसे विरोधियों के साथ उनकी गलबहियां शिवसेना में पचती रहे यह कठिन ही था/ इसके बाद भी उन्हें उनके सम्मान से कभी विलग नहीं किया गया / किन्तु अब चूंकि शिवसेना नए प्लेटफार्म से चुनावी रण में उतरने की तैयारी में है और उसे नया जोश चाहिए तब अगर मनोहर जोशी जैसे नेता अपनी परम्परा की दुहाई देते हुए लकीर के फ़कीर बने रहने की बात कहते हैं तो यह गले उतरने जैसा नहीं है / शायद यही वजह है कि शिवसेना में मनोहर जोशी के खिलाफ नारे बुलंद हो गए और मनोहर जोशी को भी अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए  जुमले याद आने लगे/
आप  अगर अनुमान लगाएं कि अगर मनोहर जोशी पार्टी में किनारे कर दिए जाते हैं तो क्या होगा ?  शिवसेना का हालिया तेवर देखने पर यह साफ़ नज़र आ जाएगा कि उसे ज्यादा कोइ हानि नहीं होगी / वैसे भी उसके सामने सबसे बड़ा रोड़ा महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का है , ऐसे भी यह रोड़ा तो रहेगा ही / जोशी इस रोड़े को कम करने में कोइ अहम् भूमिका निभाते नज़र तो नहीं आते/ बस बात सिर्फ उनके पुराने नेता होने की है और यही पक्ष शिवसेना में पुरानों के बीच थोड़ा बहुत   असर डाल  सकता है/ पर नए और युवा विचारों के बीच जोशी का धकेल दिया जाना सिवा दूध से मक्खी निकाल देना भर है/ पर यह भी शिवसेना नहीं करना चाहती तो सिर्फ इस वजह से कि उद्धव ठाकरे मनोहर जोशी के योगदान को भूल नहीं रहे/ अब जोशी को चाहिए कि वो सामंजस्य बैठाएं न कि अपनी जिद और अपने अहम् पर रुके रहें/  
-अमिताभ श्रीवास्तव