Saturday 9 November 2013

मुम्बई के गड्ढे या गड्ढों में मुम्बई ?

गड्ढों में चलता करोड़ों का खेल  

मुम्बई देश  की आर्थिक राजधानी है/ मुम्बई माया नगरी है/ मुम्बई बेमिसाल है/ यह इससे भी अधिक अच्छी मुम्बई से बाहर बैठे लोगों के लिए हो सकती है/ किन्तु जो भी एक बार मुम्बई  की सड़कों से गुजरता है उसे यकीन नहीं होता कि वह मुम्बई में है या ठेठ गाव की किसी सड़क पर जो शहरी दुनिया से एकदम अलग है / यह सच्चाई मुम्बई के सुनहरे दृश्यों पर कालिख है/ सारा मज़ा बिगड़ जाता है जब आप इसके उपनगरों से होते हुए मुम्बई दर्शन के लिए निकलते हैं/ सड़कें माशा अल्लाह उबड़-खाबड़ हैं/ सुधारी जाती है / उखड जाती है/ और आपको उखड़ी सडकों पर ही चलना होता है/ मज़ा यह कि अभी बनी सड़क , अभी ही खोद  दी जाती है / कारण पाइप लाइन डालनी है, केबल डालना है इत्यादि / कारण मौजूद है/ किन्तु सड़कें मौजूद नहीं रहती/
आम जनता के दर्द भी गली मोहल्ले की चर्चा के दौरान रीलीज होते रहते हैं/ कुछ आंदोलन भी होते हैं/ अखबारों  में बड़े बड़े पेज सजते हैं/ राजनीतिक पार्टियां एकदूसरे पर सडकों के माध्यम से कीचड उछालती है / मगर सड़क है कि अपने गड्ढों से अलंकृत ही रहती है/ दुर्घटनाएं सामान्य है / आप  सकुशल चल सकें यह असामान्य और दुर्लभ कार्य है/ फिर भी मुम्बई है और मुम्बई की शान है/
सड़कों की कायापलट     के  लिए टेंडर    निकाले  जाते  हैं/ सड़कों पर रोलर  भी चलता  है , डाम्बर  भी डलता  है/ पत्थर - गिट्टी  से मजबूती  भी दी जाती है/  मगर क्या हो जाता है कि करोड़ों की लागत गड्ढों में चली जाती है और मुम्बईकरों को गड्ढों में सड़क ढूंढनी पड़  जाती है/ मामला अदालत तक भी जाता है कोर्ट फटकार भी लगाती है , मगर परिणिति वही ढाक  के तीन पात वाली / आखिर किया क्या जाए? इसका कोइ समाधान न तो मुम्बई महा नगर पालिका के पास है और न ही टेंडर हड़प ले जाते ठेकेदारों के पास/ दोनों के पास समाधान का न होना ही उनके अपने समाधान के लिए आवश्यक भी है/ आप ही देख-जान लें कि कोइ दस वर्षों में १२ हजार करोड़ रुपये सड़कों  में ठोंक   दिए  गए मगर एक एक रुपयों की हालत यह हो गयी कि उसके चिथड़े भी ढूढ़ते नहीं दीखते/ आम नागरिक आखिर किसकी तरफ उंगली उठाएगा ? वह या तो नगर सेवक पर निशाना साधेगा , नहीं तो अधिकारियों  पर / या फिर उसके सामने ठेकेदार होंगे / इन पर तीर इसलिए भी चलाये जाते हैं क्योंकि यहीं है जो मुम्बई की सडकों के नाम पर करोड़ों का व्यय  करते हैं/ यह व्यय जाता किधर है? मुद्दा यही है / तमाम राजनीतिक पार्टियां, सत्ताधीन नेताओं को कटघरे में खड़ा करती हैं/ किन्तु कोइ भी सडकों की खस्ता हालत के सन्दर्भ में सड़क पर उतर कर सड़कें नहीं बनवाता / वही गिने चुने ठेकेदारों के पास काम जाता है/ वही ठेकेदार वैसा ही काम करवाते हैं/ मगर पैसा हर समय से अधिक ही लेते हैं/ आपकों बता दें कि कोइ बारह  साल पहले यानी २००० में सड़कों के टेंडर महज एक से पांच करोड़ के बीच में होते थे / सड़कें भी होती थीं/ यानी कम गड्ढों वाली सड़कें/ प्रति सड़क के हिसाब से ठेका होता था/ बाद में शायद हुआ यह कि सड़कों के नीचे स्वर्ण छुपा दिखा , तभी न एक से पांच सड़कों के लिए टेंडर निकाले जाने लगे और यह १० से १५ करोड़ में या फिर १५ से २० करोड़ तक जा पहुंचा/ बदलाव हुए/ 2012   आते आते तो मामला १०००  करोड़ तक पहुँच गया / और सड़कों का क्या हुआ? पहले दो चार गड्ढे हुआ करते थे / धीरे धीरे वो पूरी तरह गड्ढों में तब्दील हो गयी/ यानी बारिश का मौसम आया ही था कि सड़कें पानी में बहने  लगी/ नामी गिरामी कंपनियों के ठेके में बनीं सड़कें अपनी बदकिस्मती पर रोने लगी, नागरिक सड़कों के आंसू अपनी आँखों में समेटते हुए इन गड्ढों में सफ़र करने पर मजबूर हो गए/
अब फिर करोड़ों का टेंडर निकला जाना है/ पुराने काम यथावत है/ आरोप-प्रत्यारोप जारी   है/ यानी सबकुछ होता है मगर सड़कें नहीं बनती / और अगर बनती भी हैं तो बहुत जल्द मरने के लिए बनती  हैं/ इन कम उम्र सड़कों को दीर्घायु बनाये जाने जैसा कुछ भी नजर नहीं आता/ या तो वाकई नज़र नहीं आता या फिर नागरिकों की आँखों में मोतियाबिंद हो गया लगता है/ क्योंकि न नेता, न बीएमसी, न अधिकारी और न ठेकेदार अपना दोष मानने को तैयार है/ दोषी हैं तो नागरिक है / वे ही भुगतें/  

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