Wednesday 13 November 2013

पैसा उगाने की घटिया सोच को तवज्जो

नए अखबारों के साथ समस्या यह है कि वो एक अलग ही खुमारी में रहते हैं/ लीक से हट कर , कुछ अलग कर देने वाली सोच को लेकर वे मैदान में उतरते हैं और उसी पटरी पर चलने लगते हैं , जो परम्परागत है/ कंटेन की बात तो खूब करते हैं मगर उसे उसी रूप में पेश नहीं कर पाते और भटक जाते हैं/ इसका सीधा सा कारण है वे 'बेहतरी' को  नजर अंदाज़ करते हैं, अनुभव -प्रतिभा को किनारे रखते हैं  और अपने अहम् में सफ़र करते हैं/ इससे हालांकि 'बेहतर' को कोइ हानि नहीं होती मगर उनके सफ़र में व्यवधान पैदा होकर वे अकाल मौत मारे जाते हैं/ 

पिछले दिनों अखबारों की गिरती दशा पर चर्चा आयोजित की थी , कुछ प्रबुद्धजनों ने अपने विचार रखे , कुछ प्रबुद्ध जन अभी भी इस पर चर्चा कर मंथन कर रहे हैं/ यह अच्छी बात है/ ऐसा  होना भी चाहिए / हमारा प्रयास है कि अखबार को उसकी दिशा मिले / इस क्रम में  दैनिक जलतेदीप , जोधपुर के पूर्व समाचार संपादक विजय कुमार मेहता ने अपने विचार पेश किये, आज उनके विचारों से चर्चा को आगे बढ़ाते हैं/

''गुणी और ज्ञान से भरे शब्दों के माली उसे चाहिए भी तो नहीं''

''कोई बहुत पुरानी बात नहीं है ..आज से सोलह बरस पहले तक जिला स्तरीय या राज्य स्तरीय समाचार पत्र जो सामग्री परस  रहे थे, उसमे रचनात्मक लेखन की झलक दीख जाती थी, तब एक अख़बार ने पाठकों के उस तबके की नस पकड़ी जिस तबके ने टीवी पर आने वाले फूहड़ कार्यक्रमों, स्तरहीन शब्दज्ञान रहित सामग्री को वाह वाही देनी प्रारंभ की थी... उसी तबके ने 'हमको क्या पसंद है' की तर्ज पर अख़बारों की 'उस तरह की सामग्री' को तरजीह देनी शुरू कर दी.....एक बड़े अखबार की नासमझ नयी पीढ़ी ने उस नवागंतुक अखबार की फ्री में इतनी पब्लिसिटी कर दी जो तब लाखों रुपये खर्च करने से नहीं हो सकती थी ...... ..फलत: आज वह अखबार जिले और राज्य से बाहर निकल कर राष्ट्रीय स्तर पर 'प्रतिष्ठित' हो चुका है.....जिले और राज्यों के तमाम छोटे अखबार उस बड़े समूह ने निगल लिए हैं.... ऐसे में उन बर्बादी की कगार पर पहुँच चुके छोटे अखबारों ने भी रचनात्मक लेखन की तरफदारी छोड़ जैसे तैसे पैसा उगाने की घटिया सोच को तवज्जो दे दी... आज 1000 या 2000 प्रतियाँ छापने वाला अखबार जो सरकारी खातों अनुसार डेढ़ से दो लाख प्रतियाँ छाप रहा है ... सरकारी  विज्ञापनों और बड़ी कोमर्शियल रेट्स पर छपने वाले विज्ञापनों की चाह में इतना भूखा हो गया है की उसकी आपूर्ति ............जैसे भरपेट मिल जाने के बाद भी वो अतृप्त हो ..उसे और धन चाहिए ..बस धन ..... तब ...
ऐसे वक्त में गुणी और ज्ञान से भरे शब्दों के माली उसे चाहिए भी तो नहीं ....उसे केवल पैसे से सरोकार हो.... नाम में क्या रखा है ....उन ज्ञानवर्धक पत्रिकाओं का अस्तित्व भले फूहड़ शब्दों, बेतरतीब शैली और गोशिप से भरे पत्र पत्रिकाओं ने लील लिया हो ... पर इनका पेट कमर से नहीं लगेगा ... आज की पीढ़ी का पत्रकार शब्द का मर्म समझे बिना अपने को उसकी तह में घुसा समझ व्याख्या में यकीन रखता है .. बिन सोच इस तरह से मंतव्य थोप देना .और ऐसी ही युवा पीढ़ी भी है जो 'इन्स्टेंट' के मजे में मूल का स्वाद चख ही नहीं पाती ....आज के हिंदी अखबारों के नहीं टिक पाने की बड़ी वजह है ...साहित्यिक सामग्री से ज्ञान चूसने से पीछा छुड़ाती नयी पीढ़ी ... कॉर्पोरेट श्हाएँ बाएं की गणित लगता है थोड़े समय बाद 'रचनात्मक' शब्द पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देगी ......अंग्रेजी स्कूल की पक्षधर नयी पीढ़ी को हिंदी के बहुतेरे सरल से शब्दों का मतलब समझने की गरज तक नहीं है...ऐसे में हिंदी अखबारों का उत्थान हो तो कैसे 

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